बूहे खोल ना माड़ी धूल राहों की काबिज है जहाँ की धूलि में खेला उसी में मिलने आया हूँ परिंदा था मैं आवारा परवाज़े न रुकती थीं है नीला आसमाँ काला शिवाले लौट आया हूँ है अफसुर्दा सा चेहरा न अब हैं रौनकें बाकी कभी काजल लगाया था आंसू लेकर आया हूँ कमज़र्फ आंधी ले उड़ी ऊंचे सभी मरकज़ मुफ़ीद था तेरा ही दर दुआएं लेने आया हूँ हैं सारे बंद दरवाज़े सांकल में सभी बेकल तारीख़े ये भी बदलेंगी यही बस सुनने आया हूँ
बूहे खोल ना माड़ी
बूहे खोल ना माड़ी कोरोना के समय में लिखी एक मजदूर की आर्त पुकार है जो लम्बा सफर कर अपने घर तो पहुंच गया है परन्तु उसे भय है कि वह भीतर गया तो शहरी कोरोना अपने घर वालों को भी दे देगा।