दुनिया दुखी फिरे भाई…
दु:ख की परिभाषा केवल वो लोग बता सकते हैं जो इस दौर से गुजरे हों। एक छोटे बच्चे के लिए जहाँ कांटे की चुभन एक बड़ी दुखद घटना हो सकती वहीं उम्र बढ़ने के साथ दुख के रंग और रूप भी बदलते चले जाते हैं। कोई हाथ-पैरों से अपंग होकर दुख के अथाह समुद्र में चला जाता है तो कोई बड़ी से बड़ी बीमारी होने पर भी हँसकर हिमालय चढ़ जाता है!
गहरे अवसाद की भावना जो व्यक्ति की समझ को हर ले, दुख है। किसी विषय से चित्त में जो खेद या कष्ट होता है वही दुःख है । दुःख सें द्वेष उत्पन्न होता है। जब किसी विषय से चित्त को दुःख होगा तब उससे द्वेष उत्पन्न होगा ।ऐसी अवस्था जिससे छुटकारा पाने की इच्छा प्राणियों में स्वाभाविक हो दुख कहलाता है।
दुख तीन प्रकार के होते हैं – मानसिक, शारीरिक और भौतिक। मानसिक अर्थात जो मन से उत्पन्न स्वेच्छा से प्रबल भावनाओं के वशीभूत हो किए जाते हैं जैसे- ईर्ष्या, धोखा, घमंड, क्रूरता, स्वार्थपरता के चलते मानव एक न एक दिन चिंता, क्रोध, आशंका, अपमान शत्रुता, बिछोह, शोक आदि को प्राप्त करता है।
शारीरिक दुख वे होते हैं जो किसी रोग, चोट, आघात, हलाहल आदि के प्रभाव से हों और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है भौतिक दुख वे हैं जो अचानक बिना बुलाए आ जाए। जैसे भूकंप, अकाल, महामारी, अतिवृष्टि आदि। यह सभी दुख हमारे मानसिक शारीरिक और सामाजिक कार्यों के परिणाम स्वरुप ही उत्पन्न होते हैं।
सारा खेल मनःस्थिति का है। एक ही प्रकार की दुखद परिस्थिति किसी एक के लिये एक कतरे के समान तो दूसरे व्यक्ति के लिए सागर सदृश हो सकती है। इससे बाहर निकलने का केवल एक ही उपाय है मानसिक कुवृतियों का शीघ्रता से परिमार्जन। प्रिय जनों की मृत्यु, धन की हानि, अपयश, असफलता, गरीबी आदि मानसिक दुख से प्राप्त होते हैं। बुद्ध का मानना था कि अधिकांश दुख चीजों की लालसा या इच्छा की प्रवृत्ति के कारण होते हैं।
शारीरिक दुखों का कारण है शरीर द्वारा अति में किये गये कार्य.. आहार में कमी या ज्यादती, दोनों बीमारी को बुलावा हैं। जल्दबाजी में दुर्घटनाग्रस्त होना।विष आदि के प्रभाव से मृत्यु सम कष्ट। यदि भौतिक दुखों की बात की जाए तो अधिकांश भौतिक दुख हमारे सामाजिक कुकृत्यों का परिणाम ही तो हैं।
एक दुखी प्राणी भावनात्मक रूप से “बंद” महसूस कर सकता है।इस अवस्था में क्रोध, अकेलापन या अनिश्चितता शामिल हो सकती है।जैसे-जैसे जीवन में बदलाव महसूस होते हैं, अवसाद शुरू हो सकता है। इस अवस्था का उपयोग एक दुःखी व्यक्ति का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो अभिभूत और असहाय महसूस करता है।और अंत में दु:ख की स्वीकृति की अवस्था। यह अंतिम चरण तब होता है जब लोग नुकसान को स्वीकार करने और स्वीकार करने के तरीके ढूंढते हैं।इस पूरे प्रकरण में कभी कुछ दिवस तो कभी-कभी महीने यहाँ तक की वर्ष भी लग सकते हैं।
लेकिन दुख से बाहर आना ही व्यक्ति का परम कर्तव्य है। एक दुख के वशीभूत हो वह स्वयं को अंधकूप में नहीं डाल सकता। जब मनुष्य दुखी होता है तो वह वैराग्य की ओर अग्रसर होता है। दुख इसीलिए आते हैं कि मानव की आत्मा के ऊपर जमी मलिनता की परत उतर जाए।
मानव को ये कभी नहीं भूलना चाहिए चाहे कि दुनिया में कोई घर ऐसा नहीं जहाँ रहने वाले लोगों का दुखों से कभी न कभी वास्ता न पड़ा हो। लेकिन फिर भी कहकहे हैं, कहकशां तक पहुंचने के
सपने हैं।
खाली झंझावातों से
अंधियारी काली रातों से
अंबर डोले बेशक डोले
कब तृण हारा तू बोल जरा