नया साल Priti Raghav Chauhan
ये जो नया साल है
अब नया सा नहीं लग रहा
दशक दर दशक ये
पाश्चात्यता के रंग में रंग रहा है
ये सर्द शाम दिवाली सी सजधज लिए
खाली जेब सी खलती है!
धनवान नृत्य करते हैं
मजबूरी हाथ मलती है
ये जो नया साल है
ठंड में सिकुड़ा सिमटा सा
जाने किस बात पर इतना इतरा रहा है
कमबख़्त किस उपलब्धि का
जश्न मना रहा है
न बागों में बहार है
न चेहरों पर रौशनी
शायद ये भी अब बुढ़ा रहा है
ये जो नया साल है
अब नया सा नहीं लग रहा…
जरूरी है शुभकामनाएँ स्वीकार करना
प्रतिउत्तर देना उससे भी ज्यादा जरूरी
परन्तु चैत की प्रतीक्षा में
अकुला रहा है मन
ये भी नवसंवतसर को
बारम्बार बुला रहा है
ये जो नया साल है..अब खिजा रहा है
अब नया सा नहीं लग रहा.. प्रीति राघव चौहान
कहाँ तक पहुँचती है मेरी कविता…..?