पुकारता है व्यास का
वो किनारा बार बार
आँखों में तैरते हैं
वो उनींदे देवदार
खर्शू पर काई सा
छोड़ कर आया हूँ मन
मैपल के पत्रों सा
झर रहा है मुझमें वन
मनाली की झरणियाँ
फूटें हैं पोर-पोर में
बारन सा पैरहन
तैरे है मंद शोर में
विलो शैगल वो राई
पर चढ़ीं लता
वो संकरे तंग रास्ते
भूले जहाँ घर का पता
वो जामुनी और पीले फूलों
से पटा पहाड़
मनु ने यहीं तो आकर
पाया था त्राण
हिडिम्ब के प्रकोप से
बचाए जन थे भीम ने
हिडिम्बा संग यहीं फेरे
लिये थे भीम ने
टिंबर शाचकी सी
घूमूं मैं यहाँ वहाँ
ढूंढती हूँ शोर में
हरितिमा भरा जहाँ
कुजा बना कुरा बना
बेखल या शाड़ा बना
ऐ देव भेज फिर वहीं
चाहे दे जाड़ा बना
“प्रीति राघव चौहान”
उपरोक्त कविता कॉपी राइट अधिकार प्रीति राघव चौहान का है।