काग़ज़ के टुकड़े
काग़ज़ के टुकड़े
चंद टुकड़े कागज के देकर विदा किया
सदियाँ संग जिसके हंसकर गुजार दीं
खिलौने भर औकात लिए घूमते रहे
खेलकर चाबी उसने दूजे को उछाल...
कागज़
वो कागज़ थे
कोरे अनधुले
जज़्बात और हालात ने
गीले और नीले किये
सहेजे कुछ इस कदर
वक्त ने पीले किये
अनमोल लम्हे जो
शब्दों में बांधे थे
दस के भाव में
रद्दी...
माँ की कोख
ये माँ की कोख को शर्मसार करते हैं
जा के कह दो माँ से ना जने बेटे
......
बक्से में बंद कर सिराहने रखा करो
वो अभी बच्ची...
लोगों को कहने दो
आप हँसना चाहते हैं
जोर से चिल्लाना चाहते हैं
चाहते हैं सड़क किनारे खाना कुलचे
चाहते हैं सिस्टम पर लगाना पंच
दिन भर की भगदौड़ से परे
चाहते हैं...
लौट आओ
लौट आओ ऐ परिंदो
अपने आशियानों को
इससे पहले कि
दर ओ दीवार न रहें
फूल
फूल को गुल कहा
वो मुसलमान हो गया
मेरे अज़ीज मुझे
हिन्दू कहा करते हैं
मैंक्यों रुकूँ???
मैं क्यों रुकूँ, मैं क्यों झुकूँ..
दूसरे की ताल पर गीत कोई
क्यों लिखूँ
माना बड़ी उड़ान है
...
बच्चे तालियाँ बजाते हैं…
बच्चे खिलखिलाते हैं
हँसते हैं तकते हैं
अबूझ किस्सों कों
परियों की कहानियाँ
उन्हें आज भी लुभाती हैं
पहाड़ पर चढ़ती विशाल मकड़ी
रेत...
अवकाश
नवसृजन को चाहिये अवकाश
प्रत्येक दिन घूमना एक ही धुरी पर
करता है बोझिल ज़िन्दगी को
जरूरी तो नहीं हाथी के कान
लेकर खड़े रहें जमीन पर
तितलियों के...
सच
क्या आप भी
सरेआम सच
कहना चाहते हैं
ये शहर सच को
नकारता है जनाब
.............. .
जब भी सच कहा
लोग खिलखिला के हँसे
आज के दौर में
सच चुटकुले सा है
.........




















