
योग एक दिवस नहीं
सतत् की जाने वाली क्रिया है,
जिसमें स्वयं को लगातार
रखना होता है एकाग्र और स्थिर।
श्वास की गति में लानी होती है समता
चिंतन को निर्मल बनाना होता है।
हर आसन में आत्मा की पुकार सुननी होती है,
हर क्षण में जागरूकता को साधना होता है।
यह शरीर का नहीं,
मन, बुद्धि और आत्मा का अनुशासन है।
योग तप है, योग प्रेम है,
योग जीवन को पूर्णता से जीने का नाम है।
योग एक क्षण में नहीं घटता —
यह तो समय की धड़कनों के बीच
धीरे-धीरे आकार लेता एक मौन संकल्प है।
यह मृदंग से निकली
किसी एक दिवस की जयध्वनि नहीं
बल्कि वह अनसुनी प्रतिध्वनि है
जो आत्मा की दीवारों से टकराकर
हर दिन तुम्हें भीतर बुलाती है।
योग — वो सीढ़ी है,
जहाँ ऊपर चढ़ने से पहले
अपने भीतर उतरना पड़ता है।
तू जब मौन में प्रवेश करता है,
तब ही योग की पहली किरण जन्म लेती है।
शेष सब — अभ्यास की रेत पर
सहज बहती समर्पण की नदी है।
तो याद रख —
योग तिथि नहीं,दिशा है।
योग आयोजन नहीं,
अवस्थिति है।
योग प्रदर्शन नहीं,दर्शन है —
अपने भीतर का….. ॐऽऽऽऽ
‘प्रीति राघव चौहान ‘