चाहती हूँ
भारत को करीब से देखना,
उसकी आत्मा को छूना,
ब्रह्मपुत्र के उद्गम से,
नर्मदा की हर धार तक बहना।
चाहती हूँ
कावेरी की लहरों में गहराई ढूंढना,
और गंगा की धारा में
सदियों का इतिहास पढ़ना।
अस्सी के घाटों पर
बैठकर हर शंकर से मिलना,
उनकी धुन में खोकर
खुद को फिर से पाना।
भारत, तुम्हें जीना चाहती हूँ,
तुम्हारी रगों में बहना चाहती हूँ,
और हर शंकर से
साक्षात्कार करना चाहती हूँ।
लो, वाराणसी, इस बार
तुमसे मिलने आ रही हूँ,
तुम्हारी गलियों की गूंज
अपनी साँसों में भरने आ रही हूँ।
अस्सी के घाटों पर
शाम की आरती का स्वर सुनने,
तुम्हारे शंकर से
कुछ सवाल करने आ रही हूँ।
तुम्हारी सीढ़ियों पर बैठकर
वक्त की कहानियाँ पढ़ूँगी,
और गंगा की लहरों में
अपने सपने गिनूँगी।
तुम्हारे मंदिरों की घंटियाँ
मेरे मन के सन्नाटे को तोड़ेंगी,
तुम्हारे माटी की खुशबू
मेरे अस्तित्व को जोड़ेंगी।
लो, वाराणसी, इस बार
तुम्हारे आँगन में
अपने शंकर का
आचमन करने आ रही हूँ।
तुम्हें नमन् करने आ रही हूँ।।
प्रीति राघव चौहान