चलो आज तितलियों का ज़िक्र करें
ज़िन्दगी वो भी हुआ करती थी
सपने में टॉफी
कहानियों में जलेबी के पेड़
दिन भर उछलकूद
गुड़िया गुड्डों की बारातें
खाकर पीकर मौज मनाकर
लड़कर गुड़िया वापस लाते
खाट के नीचे बस्ते संग छिपना
निकल आना पापा के जाते
दिनभर गुल्ली डंडा कंचे
धूल भरे घर को आ जाना
हाथ पैर मुँह रगड़ के धोना
पापा के आगे खोल किताबें
सर को हिला हिला कर पढ़ना
मम्मी पापा के जाते ही
उछल उछल करखाट तोड़ना
आस पड़ोस में मम्मी पापा
टीचर जी को जम के कोसना
खुश होकर देना उनका टॉफी
चाय कटोरी भरकर देना
कितने बुद्धू हुआ करते थे
चीनी भी चोरी करते थे
माँ रिक्शे के पैसे बचाती
उठा ऐश हम किया करते थे
रिश्तेदारों केआते ही
बांछे ऐसे खिल जाती थी
केले और पेठे को देख
मन की कलियाँ खिल जाती थी
आज न जाओ अभी न जाओ
करते थे मनुहार यही
देवदूत साक्षात पधारे
रुकते क्यों न दिन चार यहीं
मन में लड्डू फूटा करते
रुकते ही मौसी मामा जी
मनमानी की मिली इजाजत
दिन रात हंगामा जी
वो दो रुपये विदाई वाले
दो लाख पर भारी थे
टॉफी, सायकिल, कॉमिक्स, आईसक्रीम
चार दिनों तक जारी थे
रेत के महल बनाना
बिठा कर रखना उनमें कान्हा जी
बर्थे डे चाहे जिसका हो
जमकर करना हंगामा जी
रामलीला में खाट बिछा कर
जगह रोकना सबसे आगे
एक दुशाले में ही छिपकर
सोते रहना जागे जागे
बस्ते में ढक्कन गुड़िया
पंख किताबों में रखते थे
तितली के पीछे दौड़ लगाकर
हम कितने सपने बुनते थे
प्रीति राघव चौहान