जीत के आकाश से
विजय कुसुम नहीं तो क्या
क्षण वो शंखनाद के
बना नहीं सके तो क्या
निशीथ के अंधेरों में
नव किरण नहीं तो क्या
उठा सुदीप्त भाल
इसकाल का वरण करें
क्या हुआ जो न झुके
भाल विजयमाल को
खेल के मैदान में
जो चूक गये ताल को
आकाश की ऊँचाइयाँ
जो नापी विषम काल को
उन क्षणों का भूल
इसताल का वरण करें
जीत हार चेरियाँ
रहीं हैं दिग्दिगंत में
यदि पात न झरें तो
क्या मजा बसन्त में
रहनी है एक के ही
कंठमाल अंत में
नवऋतु की चाल देख
इसचाल का वरण करें
विशालकाय विश्व में
महारथी से उतरे तुम
एकलव्य, अर्जुन और
कर्ण से भी उजरे तुम
सारथि हैं कृष्ण सदा
क्या हुआ न उबरे तुम
आत्मबल के संग पुनः
इसहाल का वरण करें