अपराजिता जब पहली बार जब उस छ:फुटे पारिजात से मिली तो उसे लगा मानो वह किसी पुराने परिचित को देख रही हो। उसकी उपस्थिति में एक ऐसी शांति थी जो झील के मौन की तरह आत्मा तक उतर जाए। वह क्षण – क्षणभर का नहीं था, भीतर ही भीतर किसी नी उमंग के बीज के अंकुरित होने जैसा था।
नीतू ने हौले से हँसकर कहा—
“तो यही हैं वे, जिनके बारे में सुना था… सत्यभामा जैसी प्रखर नारी भी जिनकी वजह से ईर्ष्या के जाल में उलझ गई थी।”
अपराजिता चुप रही। उसका मौन ही उसकी स्वीकृति था।
ये पारिजात कोई साधारण रंगरूप वाला इकलखुरा न था। इसके आने से जैसे वातावरण में फूलों की गंध घुल जाती थी। उसके आसपास बैठने वाले सभी सत्तर पात्र मानो पृष्ठभूमि में धुंधला जाते और केंद्र में बस वही रह जाता।
सेल्फ़ियों और लाइक्स की भीड़ में पारिजात की सहजता अलग दिखाई देती थी—जैसे उसे बाहरी शोहरत की परवाह ही न हो।
अपराजिता ने उसी दिन से अपने मन के गुप्त कोनों में पारिजात का नाम अंकित कर लिया। उसे न मालूम था कि यह आकर्षण प्रेम है या किसी अनजाने बंधन का स्मरण। वह बस यह जानती थी कि अब उसकी हर सुबह पारिजात के विचार से शुरू होगी। उसने कहीं सुना था पारिजात को आलिंगन में लेने से सारे दर्द तिरोहित हो जाते हैं। अपने साथियों में सबसे बड़ी वय का वही था।
अपराजिता जब पारिजात को अपने संग लाई तो अकेली नहीं थी। उसकी आँखों में जो चमक थी, वही झिलमिलाहट उसकी कक्षा की आठ बालिकाओं की हँसी में भी झलक रही थी। वे सब जैसे किसी अनदेखे उत्सव का हिस्सा बनी हों।पारिजात जब उनके बीच आया तो लगा जैसे कोई राग स्वयं चल पड़ा हो। उसके हर कदम के साथ बालिकाएँ ताल में झूमने लगीं। आठों बालिकाएँ गोल घेरे में थिरकतीं और पारिजात के साथी विष्णु कांता, अशोक, नयनतारा तिकोमा, डेजी, चम्पा, कदम्ब, पिलखन, कटहल डालियों जैसे वृक्ष की तरह लहराते चले आए थे ।
नीतू दूर खड़ी इस दृश्य को निहार रही थी—
“यह तो साधारण उत्सव नहीं है,” उसने सोचा,
“यह तो किसी नूतन युग का आरंभ है।”पारिजात और उसके सत्तर साथियों का जब विद्यालय में आगमन हुआ तो नज़ारा अद्भुत था।
द्वार से लेकर आख़िरी चारदीवारी तक बच्चों ने फूल-पत्तियों की रंगोली बिछा दी।
अभिनंदन का यह उत्साह देख लगता था जैसे किसी राजनेता का चुनावी रोड शो हो रहा हो।कक्षा चौथी के बच्चों ने सबसे पहले सैल्फ़ी ली।
गंभीर ज्ञान की किताबें एक ओर, मोबाइल कैमरे चमकते हुए दूसरी ओर!
रोहन बोला—
“मैम, पारिजात को बीच में खड़ा कीजिए, वरना हमारी डीपी में बराबर नहीं आएंगे।”
शैली ने टोका—
“अरे! पहले मेरा क्लिक करो, वरना ये फिर से हिल जाएंगे।”
ऐसा लग रहा था मानो गणित की कक्षा रद्द हो गई हो और फोटोग्राफ़ी की प्रैक्टिकल क्लास चल रही हो।सभी बच्चे इतने खुश थे मानो लाइक्स और हार्ट की फसल यहीं विद्यालय की ज़मीन पर उगाई जा रही हो।
अपराजिता ने पारिजात से धीरे से कहा—
“देखो, ये वो पीढ़ी है जो पाठ याद न करे तो चलेगा,
पर सैल्फ़ी में स्माइल करना नहीं भूलेगी।”
नीतू ने तंज कसा—
“आजकल बच्चों का सबसे बड़ा ग्रंथ है—मोबाइल गैलरी।”
बालिकाएँ हाथों में छोटे-छोटे पौधों के पैकेट लिए थीं, जो हवा में लहर- लहर लहरा रहे थे । हर एक बालिका की चोटी पर गूँथे हुए फूल ऐसे लगते मानो स्वयं वसंत ने उन्हें सँवारा हो।
पारिजात जब उनके बीच आया तो लगा जैसे कोई राग स्वयं चल पड़ा हो। उसके हर कदम के साथ बालिकाएँ ताल में झूमने लगीं। आठों बालिकाएँ गोल घेरे में थिरकतीं और पारिजात के साथी बालिकाओं की हथेलियों में लहराते चले आए थे।
गड्ढे पहले ही तैयार थे। सभी पौधे यथास्थान लगा दिए गए।
“दिन का अंत आते-आते रंगोली की पंखुड़ियाँ मुरझा गईं,
पर बच्चों के चेहरों की मुस्कान जस की तस थी।
क्योंकि उनके पास अब ढेरों सैल्फ़ियाँ थीं—
जिन्हें देखकर वे बार-बार कहेंगे—
“ये हैं हमारे पारिजात जी,
जिन्होंने हमें होमवर्क से भी ज़्यादा लाइक्स दिलाए।”
सारा विद्यालय पारिजात और उसके सत्तर साथियों की सैल्फ़ियों में डूबा रहा।
हर बच्चा अपने मोबाइल की स्क्रीन चमकाकर गर्व से कह रहा था—
“देखो, यही है हमारा हीरो!”
महीने भर झमाझम बरसात हुई। पारिजात के साथियों ने जड़ें जमा लीं। कुछ तो गाँव के सुदूर घरों में बिना पैर जा पहुंचे। पीछे सिर्फ गड्ढे छोड़ गए। जिन्हें देख अपराजिता याद करती रह गई कि यहाँ छोटा पारिजात था या कटहल…..
पर तभी सच्चाई सामने आई—
प्रतियोगिता का नाम तो था “एक पेड़ माँ के नाम”!
और उन तमाम तस्वीरों में माँ का नामोनिशान नहीं था।
बस पारिजात खड़ा मुस्कुराता रहा, मानो वह ही सारी दुनिया की माँ हो।
जैसे ही यह खुलासा हुआ, विद्यालय में हड़कंप मच गया।
दूसरी पारी के बड़े बच्चों ने तुरंत मोबाइल उठाया और बोले—
“अरे! जल्दी से अपनी मम्मी को बुलाओ, वरना अवार्ड हाथ से निकल जाएगा।”
बारह बजने को थे।
किसी की माँ सब्ज़ी लेकर बाज़ार से,
किसी की माँ दुपट्टा सँभालते हुए खेतों से भागती हुई आईं।कितनी अपने घर में जरूरी कार्य छोड़ कर आईं।
आनन-फ़ानन में गेट पर भीड़ लग गई
अब हर बच्चा अपनी माँ को बग़ल में खड़ा कर कह रहा था—
“मम्मी, ज़रा मुस्कुरा दीजिए… पारिजात के साथ साइड में आइए।”
माएँ भी हाँफते-हाँफते कैमरे की ओर देखने लगीं।
फिर से फ्लैश चमके,
फिर से गैलरी भरी।
पर इस बार बच्चे तसल्ली से बोले—
“अब सही है!
माँ भी आ गईं, पारिजात भी दिख रहा है—
और प्रतियोगिता का मक़सद भी पूरा।”
अपराजिता ने झुंझलाकर कहा—
“हमारे सारे पौधे तो इन्होंने कैप्चर कर लिए! अब हम क्या करेंगे?”
ऋतु मैम ने हँसते हुए उत्तर दिया—
“करना क्या है! इनकी माताओं को बुलाओ अभी। वही खड़ी होंगी तो फोटो भी सही कहलाएगा।”
अपराजिता फिर भी परेशान—
“पर इनके साथ तो सैंकड़ों फोटो हो गईं!अच्छा, आप ही बता दीजिए मैम, कब तक यह खत्म करना है?”
अपराजिता ने पूछा।
ऋतु मैम ने पूरी गंभीरता से कहा—
“2 अक्तूबर तक।”
सब चौंक गए।
किसी को समझ ही नहीं आया कि पौधे का रिश्ता अब गांधी जयंती से कैसे जुड़ गया।
फिर अपराजिता मैम ने अपने चिर-परिचित “सरल उपाय” वाला अंदाज़ अपनाया—
“देखो, चिन्ता मत करो। सत्तर पौधे और सही। बच्चों को लाकर दोबारा दे देंगे।
उन्हें कहेंगे—घर पर लगाओ और सैल्फ़ी भेज दो।
बस! समस्या खत्म।”
विद्यालय के गेट पर नया बैनर टाँग दिया गया—
“वार्षिक आयोजन : 2 अक्तूबर, सेवा पखवाड़ा”
अपराजिता ने मुस्कुराकर पारिजात से कहा—
“लगता है अब हमें फूल कम और पोज़ ज़्यादा देने होंगे।
माँ के नाम पौधे लगाने का सपना,
अब ‘फिल्टर’ और ‘हैशटैग’ में ही खिलेगा।”
नीतू ने जोड़ा—
“सच है, 2 अक्तूबर अब गांधीजी का नहीं,
गैलरी जी का दिन हो गया है।”
अगले दिन के अखबारों की मुख्य खबर थी…
संपादकीय
“2 अक्तूबर :पारिजात सैल्फ़ी दिवस”
प्रिय पाठको,
इस वर्ष हमारे यहाँ के शुभम करोतू विद्यालय ने इतिहास रच दिया।पौधारोपण के शुभअवसर पर फसल काटी सैल्फ़ियों की।सबसे ज्यादा वृक्ष पारिजात के लगाए गए।
एक पारिजात की तीन सौ साठ डिग्री के एंगल से सैंकड़ों फोटो ली गईं। खुशी की बात ये है कि इस पारिजात की सैंकड़ों माताएँ हैं।
गांधीजी मुस्कुरा रहे होंगे, सोचते हुए—
“अच्छा हुआ मेरे ज़माने में स्मार्टफोन न था,
वरना सत्याग्रह की जगह सैल्फ़ीग्रह हो जाता।”
और इस तरह…..
गाँव के बुज़ुर्ग चौपाल पर बैठे अख़बार पढ़ रहे थे।पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में लिखा था—
“2 अक्तूबर : गांधी जयंती या सैल्फ़ी दिवस?”
बुज़ुर्गों की टिप्पणी
रामलाल काका ने चश्मा उतारकर कहा—
“अरे भाई, हमने तो सोचा था बच्चे पेड़ लगाएँगे, छाँव देंगे,
मगर यहाँ तो पेड़ से ज़्यादा फोटो उग रहे हैं!”
दूसरे बुज़ुर्ग बोले—
“पहले पौधे जड़ पकड़ते

थे, अब तो बस मोबाइल में ही फलते-फूलते हैं।
पता नहीं ये बच्चे आने वाली पीढ़ी को ऑक्सीजन देंगे या लाइक और कमेंट।”