सियासी झगड़ों से बचपन को बचाना था
दुनियावी बातों में हम दीवानावार हुए
न रहे अपनो के न गैरे तलबगार हुए
साथी सभी एक एक कर खुदा हो गए
देख हम उन्हें गुलशन ए गुलज़ार हुए
ज़िन्दगी को बन कर कैदी गुजारना
फितरत नहीं थी यूँ हर पल रफ़्तार हुए
रूढ़ियों से ऊबकर चाह बैठे जागरण
रोज अखबार का नया इश्तिहार हुए
मेरी ख़ला में वो संझा सी मुस्काती रही
हम उसकी हँसी के नगमा निगार हुए
ज़िन्दगी रोज़ नया इम्तिहान लाती रही
आलिमे नज़र में नाहक नागवार हुए
सियासी झगड़ों से बचपन को बचाना था
मिट्टी लिए हाथों में संग उनके कुम्हार हुए
“प्रीति राघव चौहान “
गुरुग्राम