क्या बताऊँ किसलिए बेजार हूँ
रोज के हालात से लाचार हूँ
तरबतर हैं चप्पलें बरखा बगैर
दुर्गंध से भरा हुआ बाजार हूँ
मकानों में पैबस्त हैं नाले सभी
उम्मीद से भरा हुआ त्योहार हूँ
बड़े-बड़े मसले यहाँ का तौर हैं
छोटे मुद्दों का नहीं दरबार हूँ
मुकाबिल किसी रोज़ हो तो ज़रा
मैं भी तेरा ही तो परिवार हूँ
बदल रहा हूँ कबसे लिफाफों में
तरोताजा था वही अखबार हूँ
किश्तें भरते बाल भी धौले हुए
एक झूठे स्वप्न का शाहकार हूँ
लोग कहते हैं मैं अंधा भक्त हूँ
कैसे बताऊँ मैं ही तो सरकार हूँ
प्रीति राघव चौहान