हंथकरघा जहाँ गाता धुनों का राग,
हर ताना-बाना कहता है दिल की बात।
सूरज सी रेशम किरणों से बुनकर के वो खेल,
मेहनत और कारीगरी का अविरत अनुपम मेल।
हथकरघा चला रहे जैसे सरगम का तार,
उनकी खड्डी पर बना बनारस का श्रृंगार।
रेशम साड़ी में छिपा बनारस का इतिहास,
सदियों से आज तक हर दुल्हन की आस।
मंदिरों की छांव हो या हो गंगा का घाट,
हर बुनाई में झलके इनके बनारसी ठाठ।
कभी खुशी संग, कभी दर्द संग बुनते कितने रंग,
सुनो, उनकी चुप्पी में भी छिपी है नई उमंग।
फटी बांसुरी से भी निकले कहलाते वो गीत,
ऐसे ही बनारसी बुनकर, अजेय और अद्वितीय।
प्रीति राघव चौहान