कागज की नाव..
रात भर बादलों ने
जमकर किया नृत्य
हर छत-हर पात पर
कुछ इस तरह कि
सूरज खुलकर मुस्काना भूल गया
बस धीरे-धीरे भीगी
हर चीज़… हर कोना… हर सरमाया ।
बस चुपचाप आकर रख दी
थोड़ी नमी, थोड़ी थकन जैसे ।
दरवाज़े पर पानी ने दस्तक दी,
मैंने खींच लिए कदम पीछे
चप्पलें भी भीगी-सी बोलीं —
“आज कहीं जाना मत।
बस बैठो खिड़की के पास
थोड़ा देखो ये मौसम, बस।”
न धूप थी, न अँधियारा,
ये बीच का कोई सपना था।
ये जेठ की एक सुबह थी
गीली सी,
कुछ रूकी-रूकी,
कुछ सीली सी।
उस गीली सुबह में
कोई शब्द नहीं थे,
सिर्फ एक रिक्त स्थान था
जहाँ तुम्हें होना था
और तैरानी थी एक..
कागज की नाव!
प्रीति राघव चौहान