प्रीति राघव चौहान उत्कर्ष

PritiRaghavChauhan

प्रीति राघव चौहान
उत्कर्ष
कोलाहल चहुंओर व्याप्त है द्वंद चतुर्दिक घेरे
मैं और मैं की अमराई में निस दिन लगते फेरे
तू- तू मैं- मैं से भरकर नैया खेता सांझ सवेरे
निपट अकेलापन ले कहता कटें कष्ट नहीं मेरे
मनो विलास से आह्लादित मन मन के ऊंचे सूबे
दिशाहीन सा इत उत भागे इक पल को न ऊबे
लिए अतीत के तमगे बढ़ता अद्भुत अजब अजूबे
भार बढ़ रहा भाव नदारद अब डूबे तब डूबे
दिव्य खोज में लगा मौन घेरे हैं सहस्र विचार
ज्ञात जगत से आंख चुरा भीतर करता विस्तार
मत पूर्वाग्रह स्वार्थ सभी की गिरा बैठा दीवार
सहज भाव से भरा मनस खुले प्रेम के द्वार
कालरात्रि और किरण का खूब हुआ विमर्श
निशा किरण संघर्ष में नव-दिन का उत्कर्ष
घोर निशा से उजियारे का जब जब होता संघर्ष
तब- तब रश्मि रथी भानु का होता है उत्कर्ष
@#प्रीति राघव चौहान