कंचन सुबह से ही अपने महानगर वाले घर में तैयारियों में जुटी थी। बैठक कक्ष में उसने आसन, दरी और फूल सजा दिए थे। रंगीन परदों से छनकर आती धूप कमरे को और भी उजला बना रही थी। कोनों में रखे शो–पीस और मंदिर के पास की सजावट माहौल को पवित्र बना रही थी। हवन ठीक शाम चार बजे होना तय था, इसलिए अभी कुछ घंटे बाकी थे।वह सोच रही थी कि सब मेहमान आने से पहले एक बार और सब देख ले—अग्निकुंड, घी, हवन सामग्री, कुश, अक्षत सब ठीक से रखा है या नहीं। तभी फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर अनजान नंबर देखकर उसने हल्के मन से सोचा—शायद कोई परिचित आशीर्वाद देने का फोन कर रहा होगा। लेकिन जैसे ही कॉल रिसीव किया, आवाज़ सुनते ही उसका दिल धक् से रह गया।
सरोज जी का फोन था। उधर से संदेश था—“कंचन जी, आप किसी आरव त्रिवेदी को जानती हैं?यहाँ कोई निशिकांत जी आएँ हैं। उनके पास रिटायर्ड और मृत व्यक्तियों की एक लिस्ट है। उनका एन.पी.एस. क्लेम परिवार को दिलाने के लिए उनका घर का पता चाहिए, और हमें जानकारी मिली है कि केवल आप ही जानते हैं।”
“एन पी एस…? वो तो अभी चालीस के ही होंगे!” कंचन ने अचंभे से कहा।
“जी आरव त्रिवेदी का खाता बंद है, फोन कोई उठाता नहीं इसलिए ये बैंक से ये आए हैं। इन्हें उनके घर का पता और फोन नंबर चाहिए।” सरोज जी ने दुखी मन से कहा।
कुछ पलों के लिए उसके चारों ओर का शोर–शराबा, रंग, रोशनी सब मौन हो गए। सोफे पर रखे कुशन, फिश टैंक की हल्की रोशनी और दीवार पर टंगी पेंटिंग सब धुंधले से दिखने लगे। एक ओर शाम चार बजे का शुभ अवसर था, दूसरी ओर यह गहरी पीड़ा।कंचन फोन रखकर कुछ देर निःशब्द बैठी रही। मछलियों की धीमी तैराकी और पंखे की आवाज़ के बीच उसका मन भीतर तक भारी हो गया। घड़ी पर नज़र पड़ी—बारह बजकर बीस मिनट हो रहे थे। सिर्फ तीन घंटे चालीस मिनट में पंडितजी आने वाले थे और आँगन में हवन शुरू होना था।उसने गहरी साँस ली, आँसू रोकने की कोशिश की और खुद से कहा—“आरव जी के परिवार तक उनका अधिकार पहुँचना ही चाहिए।” वह जानती थी कि हवन की अग्नि प्रज्वलित होनी तय है , लेकिन उसके मन के भीतर शोक की लहर भी उतनी ही तीव्र थी।
आरव कभी उसके सहकर्मी रहे थे। उम्र तीस के आसपास, पर चेहरे पर हमेशा हँसी, बातों में बेबाक़ी और दिल में मदद करने का जज़्बा। वह जब भी उनके साथ होती, माहौल हल्का हो जाता।
उन दिनों की यादें उसे बार-बार घेर लेतीं।
वह दृश्य आज भी आँखों के सामने ताज़ा था—
“भाई गौतम, मैं तो एच.सी.एस. का फ़ार्म भर रहा हूँ, तू भी भर यार…”
गौतम झुँझलाया, “मेरे पास कहाँ इतना समय है, और कैसे मैं…। ”
वह अचानक बीच में बोल पड़ी,
“मैं भी भरूँगी फ़ार्म!”
आरव की हँसी फूट पड़ी। वह ठठाकर बोला,
“वाह जी वाह ! बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम…”
“अच्छा तुमने मुझे बुड्ढी बोला। !”
उसकी आँखों में गुस्से की झलक थी,
“मैं बुड्ढी हूँ? ठीक है, अगर तुमसे ज्यादा नंबर न आए तो कहना।”
“चलो, लगी शर्त!”आरव की आँखें चमक उठीं।
“हाँ हाँ, चलो लगी शर्त! यही तो मज़ा है ज़िंदगी का।”
शर्त के चक्कर में उसने भी, पैंतालीस की उम्र में, फ़ार्म भर दिया। सब हँसते रहे, मगर आरव का यही अंदाज़ था—किसी भी बात को चुनौती और उत्साह में बदल देना।
उसकी यह आदत, “चलो, लगी शर्त…” कहना, सहकर्मियों के बीच मशहूर थी। ऑफिस में किसी ने कहा कि काम मुश्किल है, तो वह ठहाका लगाकर बोलता—“ठीक है, चलो लगी शर्त, तुमसे पहले मैं निपटाऊँगा।”
उसकी शर्तें कभी पैसे की नहीं होतीं, सिर्फ़ आत्मविश्वास और दोस्ती की होतीं।
कभी-कभी हँसी में, कभी चुनौती में, मगर हर बार दिल से।
याद करते हुए वह सोचने लगी—
“कैसा आदमी था… मुँहफट ज़रूर, पर दिल का बिल्कुल साफ़। उसकी मौजूदगी ने ही कई बार मुझे आगे बढ़ने का हौसला दिया।”एक बार तो चलती गाड़ी से….
उसकी छोटी-सी आल्टो पर उसे एक अजीब-सा अभिमान था। उन दिनों साधनों की कमी थी, सो हम चारों—गौतम, मैं, मंजू और रंजना—उसी गाड़ी में सफ़र किया करते थे।
उस दिन जब उसने रंजना को घर के पास उतारा, तो अचानक झुँझलाकर बोला,
“अब इस मोटी को साथ नहीं ले जाऊँगा।इतनी भारी है हर ब्रेकर पर गाड़ी टिकती है। ”
उसकी आवाज़ में ऐसी कड़वाहट थी कि मेरा मन कसैला हो गया। वातावरण भारी-सा हो गया था। तभी मंजू ने बात को हल्का बनाने के लिए मुस्कुरा कर कहा—
“सर, मुझे मत छोड़ना… मैं तो पतली-सी हूँ।”
मैंने सोचा, शायद वह बात यहीं खत्म हो जाएगी। लेकिन अगले दिन न मंजू को जगह मिली, न रंजना को। हम दोनों हैरान थे। हिम्मत जुटाकर मैंने पूछा—
“क्या वजह है कि आज इन्हें नहीं लाए?”
वह रुक गया, आँखों में तिरस्कार की लकीरें खिंच आईं। ठंडी साँस छोड़ते हुए बोला—
“जो बेस्ट फ्रेंड होकर भी उसे धोखा दे रही है… ऐसी औरत का मेरे साथ क्या काम? मैं ऐसे रिश्ते ढोना नहीं चाहता।”
उसकी बातों में कठोरता थी, लेकिन कहीं न कहीं चोट भी झलक रही थी।
छोटी उम्र में ही आरव के सिर से पिता का साया उठ गया था। गाँव की बटाई की ज़मीन ही सहारा थी। माँ ने उसी से आने वाले पैसों पर किसी तरह घर चलाया और आरव व निलय को पाला-पोसा। खेत से अनाज आता, तो माँ उसे सोने-चाँदी की तरह सँभालती।
आरव ने पढ़ाई में जी-जान लगा दी। उसका सपना था कि एक दिन माँ के संघर्ष को कुछ राहत मिले। निलय छोटा था, इसलिए माँ अक्सर कहतीं—
“बड़े बेटे का कर्तव्य है कि घर का सहारा बने।”
इधर आरव की मेहनत रंग लाई। पहली नौकरी मिली। पहली तनख़्वाह के सपने उसने पहले ही बाँध रखे थे—माँ के लिए साड़ी, निलय के लिए जूते और घर के लिए नया रेडियो।लकिन किस्मत जैसे हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी थी। नौकरी शुरू हुए अभी तीन महीने ही बीते थे कि अचानक रेल दुर्घटना में माँ चल बसीं।जब तीन महीने बाद आरव को पहली तनख्वाह मिलीतो कैसे फफक कर रोया था? नोटों को हाथ में थामकर जब उसने कहा था—
“माँ, ये पैसे तो आपके लिए थे… अब मैं किसे दूँ?”
कैसे कठिन हालात में भी आरव ने सबको संभाला था।
सोचकर ही उसके गले में रुकावट आ गई।
वो मैनेजर नाजरीन को मम्मी जी कहता था था.. उसके आने के बाद स्टॉफ में नोक झोंक बढ़ गई थी। एक तो उम्र कम दूसरा पारा हाई… कंचन जानती थी कि जीवन इसी द्वंद्व से भरा है—कभी मंगल की ध्वनि, तो कभी मृत्यु का मौन। आज कंचन के लिए सबसे कठिन कार्य यही था कि वह अपने आँसुओं को रोककर, आरव के परिवार को उनका हक़ दिलाने की राह बनाए।उसके हाथ काँपते हुए भी श्रद्धा से जुड़ गए—“आरव जी की आत्मा को शांति मिले।”
“क्या करूँ? अभी रोने बैठ जाऊँ तो पूरा वातावरण बदल जाएगा।1 लेकिन आरव जी का परिवार इंतज़ार कर रहा होगा, उनकी मदद सिर्फ मैं ही कर सकती हूँ।”
कंचन ने अपने आँसुओं को समेटा और डायरी निकाली। पन्ने पलटे और उस पर आरव त्रिवेदी का घर का पता कहीं नहीं लिखा था । हाँ उसका फोन नंबर जरूर था। उसने तुरंत नंबर डायल किया… फोन पर इनकमिंग उपलब्ध नहीं थी। उसने की बार नंबर डायल किया किंतु नतीजा ढाक के तीन पात। उसने फोन करके अधिकारी को सारी जानकारी दी और साथ ही यह भी कहा—“मैं उनके घर जाकर उन्हें आपका नंबर दूंगी। कृपया सुनिश्चित कीजिए कि उनके परिवार तक यह मदद तुरंत पहुँचे।”हवन में तीन घंटे शेष थे। कंचन ने तुरंत चंद्रलोक के लिए ऊबर बुक की और पंद्रह मिनट में आरव के घर पहुँच गई।
दरवाज़ा नीरजा ने खोला। उसकी आँखें बोझिल थीं—नींद से या ग़म से, कंचन समझ न पाई।
“आइए दीदी,” नीरजा ने थके स्वर में कहा।
कंचन ने भीतर कदम रखते हुए पूछा, “आरव तो ……”
“हाँ, सुनकर ही तो आई हूँ,” उसने आह भरते हुए कहा, “उसके जीवन में कितने कष्ट लिखे थे—पहले पिता जी, फिर माँ और अब…”
नीरजा बात बदलने लगी, “दीदी, मैं चाय बनाती हूँ। बस स्कूल से लौटकर अभी आँख लगी थी… बच्चे डे-बोर्डिंग में हैं।”
कंचन ने उसे गौर से देखा। हाथों में कड़े और अंगूठी तो सामान्य थे, मगर पैरों में बिछिया और माँग में सिंदूर देखकर उसका मन सिहर उठा।
“आरव को गए अभी कुछ समय हुआ है और ये…” कंचन का मन तिरस्कार के भावों से भर गया।
“ये सिन्दूर…”
चाय की ट्रे रखते ही कंचन ने अचानक पूछ लिया…
“ये तो रवि काशी से लाया था न? ओह! तुम रवि के साथ…”
नीरजा ने एक क्षण को उसकी ओर देखा और फिर हल्की-सी हँसी के साथ बोली—
“हाँ दीदी, रवि नहीं तो कौन? ।”
कंचन का दिल बैठ गया। तो ये बात है… आरव की चिता की राख भी ठंडी नहीं हुई और यह औरत रवि में रम गई!
अगले आधे घंटे तक नीरजा उत्साह से रवि की बातें करती रही। कभी हँसती, कभी उसकी शरारतों का ज़िक्र करती, कभी पुरानी यादें ताज़ा करती। कंचन को हर शब्द हथौड़े की तरह लगता—
कैसी औरत है ये! पति गया और ये किसी और के संग हँसी ठिठोली में डूबी है।
जीवन भी कैसा बेमानी लगता है… आजकल इंसान को बदलते देर ही कहाँ लगती है।
कंचन का मन भारी था। सोच रही थी—आरव ने क्या कुछ नहीं किया इस घर को सँवारने में। बचपन से ही संघर्ष, फिर नौकरी, फिर परिवार की ज़िम्मेदारी… एक-एक ईंट जोड़कर उसने यह घर खड़ा किया थाऔर अब?यह औरत, जिसे उसने अपनी जीवनसंगिनी कहा, वही सबकुछ तिरोहित कर किसी और राह पर निकल पड़ी।
कंचन की आँखों के सामने इतिहास की परछाइयाँ उभरीं।
“कहाँ पहले पद्मावती सरीखी नारियाँ होती थीं—जो पति की प्रतिष्ठा के लिए प्राणों की आहुति तक दे देती थीं। और कहाँ आज की औरतें… जो ज़रा-सी तन्हाई और मोहभंग! पल भर में परपुरुष गामी हो जाती हैं।”उसका मन भीतर ही भीतर काँप गया।
“क्या यही है आधुनिकता? क्या यही है औरत की आज़ादी? पति की मेहनत, उसके संघर्ष, उसके सपनों की कोई क़ीमत नहीं? एक दिन में रिश्ते बदल जाते हैं, और ज़माने की नज़रों में यह सब सामान्य कहलाता है।”
कंचन की आँखें नम थीं। उसे लग रहा था मानो आरव का जीवन भर का परिश्रम, उसकी संवेदनाएँ, सब व्यर्थ हो गए।कमरे की दीवारें चुप थीं, पर कंचन का मन चीख रहा था—
“कभी इंसान रिश्तों का पर्याय हुआ करता था, और आज… बस मौक़ापरस्ती का।ऐसी औरत को एन पी एस मिलना चाहिए क्या? “
तभी घर का दरवाज़ा खुला और निलय भीतर आया।
“भाभी, रवि है क्या?” उसने उत्सुकता से पूछा।
नीरजा मुस्कुराई, “नहीं, वो तो बाज़ार गए हैं नवरात्रि का सामान लाने।”
देवर-भाभी के बीच छोटी-सी बात पर ठहाका गूँज उठा।
कंचन का दिल और डूब गया। “ये हँसी… ये नज़दीकियाँ… क्या अब यही रिश्तों का नया रूप है?”
लेकिन तभी आरव दरवाज़े से भीतर आया।
उसी मस्तमौला पन से कहा-
“अरे भाई तू कब आया? ,” उसने कहा।
निलय ने हँसकर कहा—”रवि कहकर तो जाता। मुझे भी लाना था सामान।”
“अरे भाई फिक्र किस बात की जब तेरा भाई बैठा है। नीरू ने बता दिया था नीता का भी सामान लेते आना।” आवाज में वही बेबाकी थी।
“रवि…. आरव तुम!”
कंचन का मन शर्म और राहत से भर उठा। जो कुछ उसने सोचा था, वह सब भ्रम निकला। नीरजा के चेहरे की थकान मोहब्बत और ज़िम्मेदारी का बोझ था, न कि किसी और के साथ जुड़ाव का।
“दीदी आप यहाँ…?”
“वो एन पी एस के लिए…. आफिस से फोन आया था।”
“ओह! ये बैंक वालों ने भी दुखी कर लिया। जब से दिल्ली आया टाइम ही नहीं मिला कि एन पी एस मर्ज कराऊँ। पर आप क्यों परेशान हुई? मुझे बुलाया होता।”
“पर तुम्हारा फोन….!”
“फोन खराब हो गया था नया नंबर ले लिया…… ऽऽऽऽ”
कंचन ने घड़ी पर नजर डाली साढ़े तीन बज रहे थे। फिर मिलेंगे आरव जरा जल्दी में हूँ। बस मेरे फोन पर अपना नंबर भेजना… बाकी बातें बाद में…..
आरव को समझ नहीं आया कि कंचन को क्या हुआ?
