सफर में हूँ निरन्तर मैं सड़क पर ज़िन्दगानी की
तुम्हें लगता है ठहरा हूँ मैं कब से एक ही ठीये
बहुत सी खामियां लेकर उठा भी हूँ गिरा भी हूँ
मुसलसल जा रहा फिर भी हंसी जीस्त ए जहर पीए
मैं कल भी धूल से था रूबरू नन्हें से बच्चों संग
नए हर्फ़ों से जाते थे वो जमीं का पैरहन सी ए
मैं अब भी धूल में पैबस्त हूँ उस नमी की मानिंद
जो अक्सर पाई जाती है सुबह में भूमि के नीए
शिकवे गिले जबसे सजाये ताक पर हमने
सभी इक फासला रखकर जताते कैसे क्या कीए
तुम्हें दिखती है काया और माया मोहिनी सी ये
मैं थोड़ा और उठ भीतर जलाता हूँ नए दीए