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निकलती नहीं अब गोरियाँ
सज सँवर कर तीज पर
मेंहदी सजी हथेलियाँ
भर-भर कलाई चूड़ियाँ
अंजन भरी आँखे लिये
होठों पे रचा सुर्खियाँ
लाल पीले घाघरे
सिर पर हरी चुनरियाँ
रुनझुन करती पायलें
और साड़ियों में लहरियाँ
सज सँवर कर तीज पर
निकलती नहीं अब गोरियाँ
बीता हुआ इतिहास है
वो डाल पर झूले सभी
कल की ही मानो बात है
वो शोरगुल मेले सभी
वो दौड़ की प्रतियोगिता
वो ठाठ वो रेले सभी
खो गई जाने कहाँ
वो साथ की हमजोलियाँ
सज सँवर कर तीज पर
निकलती नहीं अब गोरियाँ
शहरों ने लीले गाँव यूँ
खलिहान सारे खो गए
डालें भला झूल किसपर
पेड़ बौने हो गए
दो रोटियों की दौड़ में
पीहर बेगाने हो गए
ढूंढे नहीं मिलती कहीं
अल्हड़ सी वो अठखेलियाँ
सज सँवर कर तीज पर
निकलती नहीं अब गोरियाँ
‘प्रीति राघव चौहान ‘