Golden Bowl

Pritiraghav Chauhan सुनहरी कटोरा

 “मम्मी, बुरा ना मानो तो एक चीज मांगू।” शादी के चार साल बाद नेहा ने माँ से कहा।

“हां बोल क्या चाहिए?”

“तुम मुझे नानी जी वाला कटोरा दे दो!”

“ नानी जी वाला कटोरा….”, श्रद्धा ने दिमाग पर जोर देते हुए बोला। “कौन से कटोरे की बात कर

रही है?”

“वही कटोरा…… जो आपको नानीजी ने शादी में दिया था। कांसे का कटोरा….”

“क्या कह रही हो तुम? जर्मन सिल्वर और ब्रास मिक्स है उसमें। क्या करेगी उस कटोरे का? आजकल तो कोई ऐसे कटोरे में कुछ खाता भी नहीं!”श्रद्धा ने हैरत से पूंछा।

“नहीं मम्मी, एंटीक पीस बनाकर रखूँगी। मुझे बहुत अच्छा लगता है यह कटोरा।”

“ठीक है… ले जाना…”उसके बाद नेहा को कितनी खुशी हुई उसके चेहरे के भाव से सहज पता लगा रहा था। नानी के घर का वह कटोरा….  नानी का दिया हुआ वह कटोरा…. नेहा को सदैव ही लुभाता था। जाने कितनी ही बार उस कटोरे में उसने खीर खाई थी सुबह…. शरद पूनम की रात को मां बना कर रखा करती थी और उसी कटोरे में बस दूध पीने की जिद पर अड़ जाती थी। इस कटोरे से कैसी कैसी यादें जुड़ी थी।

                 कटोरा था ही इतना शानदार। कांसे- पीतल से बना हाथ भर चौड़ा कटोरा देखते ही बनता था। एकदम झमाझम चमकता था जैसे चांदी का हो और सोने का सुनहरा-पन लिए हुए। माँ का दिया वो कटोरा नेहा को बहुत ही प्रिय था। आजकल के कटोरे जैसे बेपेंदी के नहीं… उस कटोरे के नीचे कड़े जैसी गोल पैंदी लगी हुई थी। जिससे उसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती थी। नीचे से संकरा और ऊपर से उथला। मुड़े हुए किनारों वाला वह कटोरा सचमुच मन मोह लेने वाला था। पहले के जमाने में भी क्या-क्या चीजें हुआ करती थी…. यह कोई पहली बार नहीं था कि नेहा का दिल कटोरे पर आया था। उसे तो अपनी दादी की कठौती भी अच्छी लगती थी.. जो लकड़ी की थी और कठ्ठुआ (लकड़ी से बना रोटी रखने का बर्तन) जिसमें रखी बासी रोटी के आगे पिज्जा भी बेकार लगे।नेहा दादी गले में लटक कर कहती थी… बीबी ये कठौती तो मुझे ही देकर जाना । अब जब उम्र पैंतीस के पार पहुंच रही है अपनी सास से लेकर भी आई तो क्या…. पुरानी पीतल की बड़ी सी टोकनी। पता नहीं क्या ढूंढती है नेहा उन पुरानी चीजों में….

                     आज सुबह ही श्रीमती नंदा कह कर गई कि उनके घर सत्यनारायण की कथा है और हवन भी होगा। नेहा जी आपको जरूर आना है। नेहा को सत्य नारायण  की कथा यूँ तो पसंद नहीं है परंतु फिर भी उसने हंसकर हां में सिर हिलाया। श्रीमती नंदा के जाने के बाद मन-ही-मन बड़बड़ाती अंदर आईं… एक कथा को हर महीने कैसे सुन लेते हैं ये लोग.. जब देखो किसी न किसी के घर सत्यनारायण की कथा… क्या जरूरी है बार-बार एक ही कथा?

सोमेश ने पूछा “कौन था?”

“अरे वही मिसेज नंदा थीं।

“क्या कह रही थी” “कुछ नहीं.. कह रही थी सत्यनारायण की कथा है और हवन भी है। आने के लिए कह रही थीं। “चलो बढ़िया है… आज संडे वाले दिन पीछा छूटा…” सोमेश ने चुटकी ली। “क्या क्या कह रहे हो?” “कुछ नहीं, मैं कह रहा था… तुम्हें नई साड़ी दिखाने का मौका मिल जाएगा। इसी बहाने मोहल्ले की सभी औरतों के कपड़े भी देख आओगी और गहने भी। “ओह! सोमेश तुम्हें पता है ना मुझे इन फालतू की चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है।” “ औरतों को कपड़ों और गहनों में दिलचस्पी ना हो यह तो हो ही नहीं सकता…” “छोड़ो भी, पर लग रहा है जाना तो पड़ेगा ही। आज तो मम्मी भी नहीं है नहीं तो कथा किस्से तो वही निपटा लेती हैं। ठीक है चार बजे जाना है।चार बजे देखते हैं।” नेहा ने कहा। जब नेहा श्रीमती नंदा के घर पहुंची उस समय साढ़े चार बज रहे थे। आधी कथा समाप्त हो चुकी थी। नेहा ने बड़े जतन से अपने पीली साड़ी का पल्लू सिर पर डाला और फिर हाथ जोड़कर ऐसे बैठ गई जैसे कितने बड़ी भक्त हो सत्यनारायण की….. वह भी सबसे अग्रिम पंक्ति में! जैसा कि शहरों में होता है, हवन ड्राइंग कम डाइनिंग रूम में हो रहा था। उस बड़े से हॉल के बीचोबीच दो बाय दो फुट का चबूतरा बना रखा था। जिसके ऊपर हवन कुंड रखा हुआ था और उसके चारों तरफ अलग-अलग कटोरियाँ व कटोरों में हवन सामग्री रखी थी। किसी में किसी में पानी, किसी में चीनी, एक बड़े से थाल में हवन समिधा, एक परात में तरह तरह के फल फूल और हवन कुंड के चारों कोनों पर पानी…… परंतु यह क्या! एक चीज जिसने नेहा का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया वह था नानी का कटोरा….. पीतल और कांसे का कटोरा….. नेहा की आंखों की सुई उसी कटोरे पर अटक कर रह गई। कटोरा चमाचम चमक रहा था। उसके अंदर सुनहरा गाय का घी साक्षात अमृत लग रहा था। अब नेहा के दिमाग के घोड़े दौड़ने की बारी थी। उसके चेहरे पर बार-बार अलग-अलग भाव आज आ रहे थे।

यह कटोरा श्रीमती नंदा के घर पहुंचा तो पहुंचा कैसे? पिछले चार साल से वो जिस कटोरे को ढूंढ रही थी वह कटोरा आज यहां इतने लोगों के बीच मिलेगा ये उसने सोचा भी ना था। यह कटोरा श्रीमती नंदा कहीं से लिया होगा….? लेकिन फिर जैसे जैसे उसने दिमाग पर जोर डालना शुरू किया ….. नेहा का मन किसी भी तरह सत्यनारायण की कथा में नहीं लग रहा था। कटोरा श्रीमती नंदा के घर पहुंचा कैसे मन-ही-मन मनन कर रही थी। वो अपने पुराने दिनों में लौट गई, पहले पहल जब इस मोहल्ले में आई थी तो श्रीमती नंदा के घर ही किराए पर रही थी। ओह! तो यह छह महीनों केे प्रवास का प्रताप है कि कटोरा नेहा के घर से उनके घर पहुंच गया। जिस वक्त नेहा का घर बना नेहा खुशी के मारे फूली नहीं समाई और उसने एक बार भी अपने किराए वाले घर को खाली करते समय यह नहीं सोचा कि वहां कुछ छूट भी गया है।पता नहीं कटोरा कैसे श्रीमती नंदा के घर पर ही छूट गया उसे सब याद आ गया था परंतु अब हो क्या सकता था? अब तो कटोरा श्रीमती नंदा का हो चुका था। वह अपने मन को बार-बार समझा रही थी, हो सकता है ये कटोरा श्रीमती नंदा का ही हो और वो थोड़ा और खिसक कर कटोरे के पास जा पहुंची। हवन शुरू हो चुका था। सामग्री हवन कुंड में डालने के बहाने उसने कटोरे को थोड़ा सा छेड़ा। वो दरअसल देखना चाहती थी उस पर उसकी मां का नाम है या नहीं और कटोरे पर माँ का नाम दिखते ही न उसे मंत्र सुनाई दे रहे थे ना उसे पास बैठी महिलाओं के कपड़े दिखाई दे रहे थे न जेवर….. उसका ध्यान था तो बस कटोरे पर। वैसे तो कितना धर्म-कर्म वाली बनती है पर देखो किसी दूसरे के कटोरे को लेकर कैसे सजा कर रखा है। एक बार भी नजर नहीं आया होगा इसको इस पर लिखा हुआ नाम। मम्मी ने कब से संभाल कर रखा हुआ था यह कटोरा। यह तो चोरी हुई ना? सरासर चोरी। क्योंकि जब कटोरे पर नाम भी लिख रहा है तो भी यह नहीं कि उसको वापस लौटा देती। आज के बाद तो इसकी शक्ल भी नहीं देखूंगी। पर जैसे भी हो यह कटोरा तो लेना ही पड़ेगा…. मंत्रोच्चारण की जगह नेहा मन-ही-मन कटोरा-उवाच कर रही थी। आखिरकार कथा खत्म हुई हवन खत्म हुआ। पंडित जी ने सबको आरती दी, प्रसाद के रूप में फल भी। सभी महिलाएं चाय की चुस्कियां लेने लगीं। कोई श्रीमती नंदा की साड़ी की तारीफ़ कर रहा था कोई उनके घर पर हुए नए सुनहरे पेंट की। सभी औरतें धीरे धीरे कर वहां से चलने लगीं। पर नेहा का ध्यान तो अभी भी कटोरे पर ही था वो श्रीमती नंदा के साथ चीजों को समेटने का नाटक करने लगी और उस कटोरे को बड़े प्यार से उठाया। अपने आंखों के पास तक ले कर उस पर लिखा हुआ मां का नाम देखने लगी। भारी मन से उसने कटोरे को श्रीमती नंदा की डाइनिंग टेबल पर रखा रोनी सूरत बनाकर हॉल से बाहर निकली।

         घर आते ही…“ सोमी, तुम्हें मालूम है आज श्रीमती नंदा के घर क्या हुआ? तुम्हें पता है वो चांदी जैसा कटोरा जो मम्मी ने दिया था, जिसे मैं इतने दिनों से ढूंढ रही थी……… और बाकी बातें नेहा के मुंह में ही रह गई…..”

क्योंकि इस समय उसका ध्यान नेहा की किसी बात पर न होकर है भारत पाक का मैच देखने पर था। नेहा का मन भर आया।

          उसने बहन को फोन मिलाया और उसे पूरी की पूरी दास्तान सुनाई लेकिन यह क्या उसकी बहन ने उसे हंसकर टाल दिया और कहां…. जा कर ले आओ। कह दो यह हमारा कटोरा है।

“अब ऐसे कैसे मांगे चार साल बाद अपना कटोरा।”

…. कैसे दिखता नहीं है उसपर नाम भी लिखा हुआ है।

 नेहा फिर बिसूरती हुई बोली… “नाम तो मम्मी का लिखा है ना?”

“ उन्हें क्या पता तुम्हारी माँ का नाम क्या है? छोड़ो तुमसे बात करना बेकार है।” यह कहकर फोन भी काट दिया।

     तभी उसकी छोटी बेटी किट्टू घर पर आई। अभी हाल ही में किट्टू ने सातवीं की परीक्षा दी थी। किट्टू बेटा तुझे पता है आज क्या हुआ…? “क्या हुआ मम्मी?” “जो नंदा आंटी है उनके घर ना हमारा वह सुनहरी पैंदी वाला कटोरा है।”

“क्या….? मम्मी वही कटोरा जिसके पीछे आप हमसे रोज जाने कितनी बार क्या क्या कहती रही हो.. आप ही कह रही थीं ना…. इस कटोरे को माला ले गई होगी.. कभी कहतीं थीं इस कटोरे को कमला ले गई होगी और जाने क्या-क्या कितनी बातें सुनाई उस नानी वाले कटोरे के पीछे आपने हमें। अच्छा तो फिर आपने उनसे ले लिया होगा वो…” उत्साहित होकर पूछा किट्टू ने।

“तू भी क्या बात कर रही है…”, नेहा दुखी स्वर में बोली – “कैसे लेती ? चार साल पहले खोया था। अब जाकर मैं बोलूं कि कटोरा हमारा है। तो फिर गई ना हमारी साख तो… पड़ोस की बात है उन्हें लगेगा जैसे मैं उन्हें चोर बना रही हूं। अच्छा तो ऐसे कर कि जब उनकी बेटी निकिता के साथ खेलने जाये तो चुपचाप किसी भी तरह उस कटोरे को छिपाकर कर ले आना  ।”

“ ओह मम्मी, ऐसा भी कहीं होता है! ओहो मम्मी ऐसा भी कहीं होता है! यदि उन्होंने मुझे देख लिया तो वह लोग मुझे चोर नहीं समझेंगे? बिल्कुल नहीं। हरगिज़ नहीं मैं यह काम बिल्कुल नहीं करने वाली ।” किट्टू खिन्न स्वरमें बोली।

“देख मेरी प्यारी किट्टू…. बस तू ही है जो इनके घर में रोज जाती हैं प्लीज…. किसी भी तरह मेरा कटोरा ले आना ना तू… जो कहेगी मैं तुझे वही बना कर दूंगी।” नेहा उसे मना रही थी। “मम्मी, आप चाहे कुछ भी कहो मैं उनके घर में जाकर अपने कटोरे को बिल्कुल नहीं चुराऊंगी। आप चाहो तो मैं जाकर उनसे वह कटोरा मांग लूंगी।. “बस रहने दे, किसी को मेरी परवाह नहीं।”

         नेहा अब उम्मीद का दामन छोड़ चुकी थी कितने दिन उसने उसको खोजा था। कैसे- कैसे भ्रम उसके दिमाग में आए थे? इसने लिया होगा, उसने चुराया होगा और अब जब मिल गया वह भी पड़ोसियों के घर तो चुपचाप मन मसोसकर बैठी थी। हाय रे कटोरा! आज भी जब कभी नेहा श्रीमती नंदा के घर जाती हैं तो उसका पूरा ध्यान केवल इसी बात पर रहता है कि किसी तरह उसे कटोरे की एक झलक मिल जाए। मारे औपचारिकता के कभी भी ड्राइंग रूम से आगे जा ही नहीं पाती। उस घटना के साल भर बाद आखिर वह दिन आ ही गया जब नेहा को उसका कटोरा मिला। दिवाली के बाद छठ पूजा के दिन श्रीमती नंदा ने विशेष किस्म के व्यंजन बनाए थे और उन्हें थाली में सजा कर वह नेहा के लिए लेकर आईं। बीच मैं गन्ने के रस में पकी खीर से भरा वह कटोरा……मानव दांत सा चमक रहा था। कटोरे को देख नेहा घर आए मेहमान का स्वागत करना भी भूल गई! जल्दी थाली लेकर पलट गई। ना राम राम ना श्याम श्याम। न चाय न पानी…. बस थाली ली और पलट गई। श्रीमती नंदा को नेहा का यह व्यवहार उचित नहीं लगा परंतु उन्हें क्या पता था यह सब कटोरे की माया थी। उस रोज़ गन्ने के रस की खीर नेहा को इतनी खुशी दे गई जैसे किसी ने उन्हें अमृत से लबालब भरा कलश दिया हो! उसने भागकर वह कटोरा सोमेश को दिखाया। किट्टू को दिखाया। अपनी बहन को फोन किया, मां को फोन करके बताया…. मारे खुशी के नेहा फूली नहीं समा रही थी। परंतु उसे क्या पता था कि खुशियां तो केवल चार दिन की मेहमान होती हैं चार रोज बाद उन्हें जाना ही होता है…….

आंटी जी मेरी मम्मी ने कहा है हमारे बर्तन दे दो निकिता ने चार दिन बाद आकर कहा।

“क्या, कौन से बर्तन?”

“वही हमारी थाली कटोरा वगैरह…..”

अब नेहा की खुशी कपूर हो चुकी थी। उसने थाली और दो कटोरी उठाकर निकिता को पकड़ा दी और कहां… “यही हैं तुम्हारे बर्तन?”

 निकिता उन्हें ले कर चली गई इस वक्त उसके जाने के बाद नेहा को लग रहा था जैसे उसने जंग जीत ली आखिर अब उसका कटोरा उसके पास में था। पर यह क्या दस मिनट बाद ही दोबारा घंटी बजी। निकिता फिर दरवाजे पर थी नेहा ने दरवाजा खोला और पूछा क्या बात है….?

निकिता बोली आंटी जी मेरी मम्मी ने कहा है एक हाथ बड़ा कटोरा जो सुनहरी रंग का है जिस में पैंदी लगी है…. उसके अंदर मम्मी ने आपको गन्ने के रस की खीर दी थी। उन्होंने कहा है वह ले आओ वापस।

अब नेहा को काटो तो खून नहीं उसे लग रहा था जैसे सरे बाजार वह अपन ही कटोरे की चोरी के अपराध में पकड़ी गई हो। एक बच्चे से क्या कहती? भारी मन से भीतर गई। चुपचाप रसोई से कटोरा उठाया….. उसमें कुछ गुलाब जामुन रखें और भारी मन से उन्हें उस कटोरे के साथ की प्यारी सी पीतल की तश्तरी से ढककर निकिता को पकड़ा दिया।

समाप्त

VIAPriti Raghav Chauhan
SOURCEप्रीति राघव चौहान
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नाम:प्रीति राघव चौहान शिक्षा :एम. ए. (हिन्दी) बी. एड. एक रचनाकार सदैव अपनी कृतियों के रूप में जीवित रहता है। वह सदैव नित नूतन की खोज में रहता है। तमाम अवरोधों और संघर्षों के बावजूद ये बंजारा पूर्णतः मोक्ष की चाह में निरन्तर प्रयास रत रहता है। ऐसी ही एक रचनाकार प्रीति राघव चौहान मध्यम वर्ग से जुड़ी अनूठी रचनाकार हैं।इन्होंने फर्श से अर्श तक विभिन्न रचनायें लिखीं है ।1989 से ये लेखन कार्य में सक्रिय हैं। 2013 से इन्होंने ऑनलाइन लेखन में प्रवेश किया । अनंत यात्रा, ब्लॉग -अनंतयात्रा. कॉम, योर कोट इन व प्रीतिराघवचौहान. कॉम, व हिन्दीस्पीकिंग ट्री पर ये निरन्तर सक्रिय रहती हैं ।इनकी रचनायें चाहे वो कवितायें हों या कहानी लेख हों या विचार सभी के मन को आन्दोलित करने में समर्थ हैं ।किसी नदी की भांति इनकी सृजन क्षमता शनै:शनै: बढ़ती ही जा रही है ।

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