“आज तो छुट्टी है, चलो आज पूरी सब्जी बनाएँ..”, मुकुंद ने रचना से कहा। “ठीक है गैस भी नहीं है, इंडक्शन पर पूरियाँ आसानी बन जाएँगी”, जी न्यूज देखते-देखते रचना ने कहा। टी वी पर चिपके चिपके आधे घंटे बीतने के बाद जब रचना रसोई में पहुंची तो देखा सब्जी मुकुंद बना चुके थे और पूरी का आटा भी तैयार था। रचना की तो बाछें ही खिल गई। हालांकि वो ये जानती थी कि मुकुंद ने ये आटा गुस्से में गूंधा होगा। प्रायः खाना पकाने में हुई देरी उसे नागवार गुजरती थी। परिणामस्वरूप वह चिखचिख से बचने के लिए स्वयं ही शुरु हो जाता था।
रचना ने मुस्कुराते हुए मुकुंद से कहा “चलो हटो… मैं अभी गर्मागरम पूरियाँ बनाती हूँ।”, रविवार वो पूरियों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहती थी। मुकुंद इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि क्रोध किसी क्रिया की प्रतिक्रिया मात्र होता है। सामने खड़ी विपरीत परिस्थितियों की दीवार पर अपने क्रोध की जोर आजमाइश करने से बेहतर है तुरंत प्रभाव से वो जगह छोड़ दें…माना जीवन की जीवंत परिस्थितियों में कोई ब्लॉक या म्यूट का बटन नहीं होता लेकिन उसे इसी तरह समझें जैसे उस परिस्थिति को म्यूट कर दिया, ब्लॉक कर दिया हो और उसने तुरंत वह जगह को छोड़ देना ही उचित समझा।
तभी दरवाजे की घंटी बजी और राधा का आगमन हुआ। राधा आते ही किचन में बर्तनों पर लग गई। रचना थाली में पूरियां बेल- बेल कर रख रही थी। घर में केवल तीन ही प्राणी थे-वो स्वयं, मुकुंद और उत्कर्ष। रचना गरमा गरम पूरियाँ बना बना कर दोनों को सर्व कर रही थी। पूरी बनने में समय ही कितना लगना था। तभी उसका ध्यान गया राधा बर्तन मांज रही है और आटा कम है। उसे मुकुंद पर गुस्सा आ रहा था सदैव नाप तोल कर काम करते हैं। थोड़ा सा आटा और होता तो राधा भी खा लेती। क्या कहेगी बेचारी…? अब दुबारा आटा गूंधने के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहती थी। कुल सात पूरियां बच रही हैं यदि वह राधा को खाने के लिए पहले दे देती है तो उसके लिए एक पूरी कम पड़ सकती हैं। पता भी तो नहीं चलता भूख कितनी है? कहीं उसने दो की जगह चार पूरी मांग ली तो??
उसने अपने आपको इन सारे सवालों से बाहर निकाला और एक थाली में बेशर्मी से अपना खाना लगा भीतर चली गई। साथ ही खाने का कटोरदान भी ले गई।
इधर राधा मन ही मन सोच रही थी… कितनी माड़ी नियत की है। पहले पहल जब मैं आई थी तब कैसे मुझे सबसे पहले पूछती थी और आज पूरे परिवार ने ढूंस लिया…. पर क्या मजाल, जो कहा हो… दो पूरी तुमहउ खा लेयो.. राधा। क्या हम इनकी पूरिन की मोहताज हैं? नू भी श्राद्ध चल रहे हतैं । कहा खबर किस मरे कौ है।अच्छो भयो जै ना पूछी। पर यऊ सच हतै ये दो सै छित्तर वाली अब पूरी तरह बदल गई हतै।
इधर रचना पूरी खा जरूर रही थी परंतु भीतर एक कशमकश थी, राधा क्या सोचेंगी? कितनी मरी नियत की है। चलो अभी भी चार पूरियां बच रही थी। रचना ने एक पूरी कम खाई और अपने एक पूरी कम खाने के त्याग को महान समझते हुए कटोरदान और झूठे बर्तन लेकर आई। तब तक राधा बर्तन मांज ही रही थी। रचना ने राधा के सामने झूठी थाली रखते हुए कहा….. “राधा जब बर्तन मांज लो तो यह कुकर खाली कर देना इसमें जो सब्जी रखी है वह और कटोरदान में जो पूरी रखीं हैं वो तुम्हारे लिए है, खा लेना।”, यह कहकर वह दोबारा भीतर चली गई।
दोपहर में जब रचना पानी लेने रसोईघर में पहुंची देखकर हैरान रह गई उत्कर्ष के टिफिन से झूठा खाना खा लेने वाली राधा आज पूरी सब्जी को ज्यों का त्यों छोड़ गयी थी।