जाने कितनी वासवदत्ता
आई होंगी द्वार तिहारे
ओढ़ चांदनी और अंगड़ाई
लेकर होंगे पंथ बुहारे
किंतु देव में मलिन
सहमी हुई सी एक लता
आजन्म रहूँगी कृतज्ञ
जो होऊँ बंदी अंक तुम्हारे
आस हर एक मर चुकी
सुर बीन निस्पंद है
घिरी स्वप्न जालों से मैं
अंधेरों से होता द्वंद है
सुना है तुम सुन सको
हो निजन तटों की बात
मेरे मन की भी सुनो
हो चुका गुम छंद है
नयन नीर से भरे हुए हैं
किस विधि करूँ मैं स्वागत
कौन सा दीपक में बालूँ
स्वागत में तेरे अभ्यागत
साधन नहीं कुछ साधना का
पास मेरे देवाधिदेव
कैसे करूं आराधना मैं
तुम ही कहो मेरे तथागत
छोड़ मुझे तुम सकल जग को
मुक्ति मार्ग समझाते हो
स्वयं भागे जिस जहाँ से
वह कंटक पथ दिखलाते हो
समक्ष तुम्हारे यशोधरा है
आंसुओं की धार बन
कहो इसे आज सिद्धार्थ किस
गौतम से मिलवाते हो??”प्रीति राघव चौहान”