मैं चाहते हुए भी
मोनालिसा नहीं बन पाती
क्योंकि मुस्कुराना कभी आया ही नहीं
जब जब की मुस्कुराने की कोशिश
फक्क से निकली जोरदार हंसी…
बत्तीसी बाहर बेढब सी ऊंटियाना
मुंह बंद कर हंसी को गहनतम भेद सा छिपाना
भीतर और बाहर दो संसार बसाना
उसकी तरह नहीं आया जताना
मोनालिसा इलीट क्लास की बेजोड़ बाला रही होगी शायद
जिसके चित्र को ढूंढने जमाना निकल पड़ा
चित्र की कीमत से आंकी गई मुस्कान
यहाँ तो समूचा खिलखिलाता इंसान
बिकता है कौड़ियों के भाव
मैं चाहते हुए भी मोनालिसा नहीं बन पाती……
…. प्रीति राघव चौहान