उसके कदम थिरकते हैं
माँ वृंदावन को जाती है
जैसे कबूतर मूंद कर आँखें
कर रहा हो इंतजार
अनहोनी टल जाने की
बंद उन आँखों में
तैरते हैं ताजे समाचार
उसकी आँखों के इंद्रधनुष
पर भारी क्यों हैं
तुम्हारी संभावनाओं के
काले घन अपार
क्यों नहीं करतीं कदम ताल
हे विष्णु प्रिये – सृष्टि के साथ
करोड़ों के प्रदेश में
चंद काले भैरव
कब तक करेंगे हाहाकार
चेहरे को ढक लो छाती तक
ये सीख सृजन को
कदापि न देना
भय आक्रांत देख कर
वो छाती पर चढ़ आयेंगे
नोंच कर रंग सारे
कुंदित मन कर जायेंगे
सीख यही हर पल देना
तुम में साहस
तुम हो अजेय
तुम कर डालो
कर सकती हो
दुर्गा शक्ति करेगी क्या
तुम साहस तुम ही शक्ति हो
भाषा से नासा तक होने दो विस्तार
गढ़ने दो अपनी परिभाषा
माँ बनो उसका आधार
माँ बनो उसका आधार….
“प्रीति राघव चौहान”
चित्रांकन :आरुषि चौहान