चींटी के पर
एक बार एक चींटी थी। बहुत नाज़ुक, बहुत महीन, बहुत छोटी सी। उसके पास कुछ भी ऐसा न था कि उसे कोई बड़ा बना सके। केवल एक चीज थी कि वह कभी रुकती न थी! बहुतेरे समझते थे कि वह कभी किसी से बतिया रही है तो कभी किसी से लेकिन वो केवल उतना ही देख रखे थे जितना कोई भी आम आदमी देखता है। उस चींटी ने किस से क्या सुना? किसके दुख सुख को कितना परखा? उसके सिर पर अपने से कितने गुना भार है? उसने स्वयं कैसे अपना अलग एक रास्ता चुना? ये आम आदमी की समझ से बाहर की बात थी! यह बात और है कि उस चींटी के लिए हर रात उस जैसी ही काली रात थी!जबकि इंसान को यह दंभ था कि उसकी रातें खनकते सिक्कों सी उजली हैं! एक दिन उस पगली को बुखार हो गया। आप कहेंगे चींटियों को भी भला बुखार होता है कहीं? पर यह सच था। वो उस भार से संतप्त थी। कारण…? वो अपने भार से दुखी न थी।
उसे दुख था कि उससे हजारों गुणा बड़ा निष्क्रिय मानव उसे देखकर हँसते हुए कह रहा था…. चींटी के भी पर निकल आये!
“प्रीति राघव चौहान”