हवा में कंदीले बहुतेरी बेशुमार थीं
मन्नतें सभी की अपार अपरंपार थीं
हमनें भी इक दिल्लगी में उड़ा दी
सुबह मेरी छत पर बुझी हुईं हजार थीं….
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इक रात मैंने मन्नतें
देखीं अजब जलते हुए
पहुंच कर उस तलक
नामुराद वापस आ गईं…. .
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मासूम कंदीले
जानती कहाँ हैं
उनमें जो धुंआ हैं
चीन ने भेजा है…
…………………
कंदीले स्वप्निल किसी
संसार में निकल गईं
लौटना हो कैसे कब
अब कोई परवाह नहीं….
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नीलकंठ को देख
मूंद लें आँखें
या टूटते तारे
को देख जोड़ लें हाथ
या फिर उड़ा दें
मन्नत नशीं
रंग बिरंगी कंदीले हवा में
चाहतें बस वही होती हैं पूरी
जो बन्दआँआँखों से ढलकर
उस तलक पहुंचती हैं…..
……. उपरोक्त पंक्तियों पर एकमात्र अधिकार लेखिका का है।