2मार्च 2009..एक मुस्लिम बहुल इलाके में छत्तीस वर्ष की आयु में गैस्ट टीचर के रूप में नियुक्ति। सुना था मिनी पाकिस्तान है! किन्तु पहुंचने पर पाया निपट गंवार.. महिलाएँ तमाम अंगूठा टेक व पुरुष केवल स्कूलिंग लेवल तक..! पूरे मेवात में एकाध घर पढ़े लिखे।
विद्यालय ऐसा.. न चार दीवारी, न पेड़ पौधे। विद्यालय पहुंच कर बकरियों, गधों के दर्शन करो आठ बजे के विद्यालय समय में बच्चों का दस तक इंतजार करो.. सन दो हजार दस में ली गई हाजिरी जो कभी यूँ ही एक पन्ने पर लिख छोड़ी थी..
रोल नंबर एक-
नयी आयो जी
क्या? कहाँ है?
भाई के आफिस में टी वी देख रो है।
रोल नंबर दो-यैस मैडम जी
रोल नंबर तीन-ना आसे जी
क्यों?
डंपर पे जाएगो जी
रोल नंबर चार – ना आ से जी
क्यों
मदरसे में जाएगो जी
रोल नंबर पाँच – यस मैडम
रोल नंबर छः-भाग गो जी छत्तन पे के
पकड़ा नहीं?
गिड़(पत्थर) बरसा दिये जी
रोल नंबर सात-दवाई लू गयो है जी
क्या हुआ उसे गिड़न सू सर फूट गो जी रोल नंबर आठ- आयो है जी
कहाँ है?
स्कूल सू बाहर
क्यों? – कंचे खेल रौ है जी
रोल नंबर नौ- यह रो जी बस्ता
वह कहाँ है?
खेतन पर गयो जी। फूफी संग बाप की रोटी लू।
रोल नंबर दस- यस मैडम
रोल नंबर ग्यारह – बस्ता धरो है जी तीन दिनन सू
वह कहां है?
सरिया चोरी लू गयो है बड़े पुल पे के
रोल नंबर बारह- यस मैडम रोल
नंबर तेरह- जुआ खेले है जी अस्पताल में रुपियान सू । उससे कहना नाम कटेगा
हमने कही थी जी कै रो काट दो जी
रोल नंबर चौदह- हम रोज आए हैं जी हमारा नाम मत काटियो जी
वेरी गुड
रोल नंबर पंद्रह – प्लेट लु गयो है जी
पर क्यों? प्लेट सुबह साथ ही ले आता? आप पाठ सुनोगी जी। या मारे भागो..
रोल नंबर सोलह- दो महीना ना से जी
क्यों?
उसका बाप जमात में जा रखो है जी। वो
दुकान संभालेगो।
रोल नंबर सत्रह….
रोल नंबर अट्ठारह..
रोल नंबर उन्नीस..
रोल नंबर पैंतीस – दुकान पे चाय बना रो है जी।
पढ़ना नहीं है उसे?
दुकान कौन संभालेगो जी?
रोल नंबर छत्तीस – आयो है जी आरिफ
कहाँ है?
साजिद की कॉपी चोरी करके भाग गो जी। क्या करेगा कॉपी का?
पानी के पतासे खाएगो जी
छत्तीस बच्चे.. पंद्रह बस्ते, आठ प्रेजेंट! क्यों बने हम सरकारी सर्वेंट?
अब क्या करूं???
नाम काट दो जी सबन को!
उससे क्या होगा?
फिर घर घर जाएंगे।
ड्रॉपआउट का कारण क्या हम बताएंगे? फिर वही रजिस्टर होगा…
पहले से ज्यादा होंगे नाम
पूरा भारत शिक्षित होगा लिखना ना आवे है राम
बिल्कुल आदिम युग के बालक.. गालियाँ तो इनके मुँह से फूल सी झरा करती। माँ और बहन बेटी सभी की गालियाँ इनके जीवन का अभिन्न अंग थीं।ये विद्यालय आते और मध्याह्न का भोजन लेकर वापस भाग जाते।नयी जगह नए लोग.. कौतूहल था क्या माजरा है? किन्तु कभी यह गौर नहीं किया कि ऐसा क्यों है? प्राथमिक कक्षाओं में बच्चे बहुत छोटे और मासूम होते हैं। उस वक्त दो हजार दस में ही आत्ममंथन स्वरूप एक कविता लिखी थी….
हाल देखिए विद्यालय का कैसे काम तमाम हुआ
सारा सरकारी अमला क्यों कर है बदनाम हुआ
नौ तक आ जाते हैं छ:के छ:बारी-बारी
राशन बँटते ही कर लेते हैं जाने की तैयारी
एक को जाना राशन लेने दूजे को आफिस काम हुआ
सारा सरकारी अमला क्यों कर है बदनाम हुआ
जो ज्यादा बुद्धि नशीन है डाक बनावे सारा दिन
बचा मास्टर लेकर सोटा बालक घेरे सारा दिन
जो फरलो का नशीन है आन ड्यूटी पर जाम हुआ
सारा सरकारी अमला क्यों कर है बदनाम हुआ
मोबाइल पर मिले सूचना सारा दिन अब बैठे कौन
प्रजातंत्र है एक दूजे की देख लगा जाते हैं मौन
अधिकारी जब भी आए सबका उन्हें सलाम हुआ
सारा सरकारी अमला क्यों करें बदनाम हुआ
पोल ढोल की बनी रहे बड़बड़ करते रहते हैं आम
बच्चा बच्चा आठ पढ़ गया लिखना ना आवे है राम
पढ़ेगा भारत बढ़ेगा भारत घर घर नारा आम हुआ
सारा सरकारी अमला क्यों कर है बदनाम हुआ
बच्चों को विद्यालय में लाने के लिए पुरजोर कोशिश जारी रखीं। बस्ते कक्षा में बंद कर रखे ताकि मध्याह्न भोजन के बाद वो भागें ना.. लेकिन नतीजा तीस से पचास प्रतिशत बच्चे.. यानि ढाक के तीन पात। जल्द ही समझ में आ गया जब तक इनके माता पिता सचेत न होंगे कुछ न होगा। समय के साथ- साथ बहुत से बदलाव आए। सरकारें बदलीं.. और देखते ही देखते विद्यालय का खाका बदल गया। रातोंरात एक क्लिक पर ट्रांसफर हुए। हजारों शिक्षक इधर से उधर हुए। पहले ज्वाइनिंग से लेकर तबादले तक में लाखों रुपए लिए दिए जाते थे। जबरदस्त हैरानी थी ये कायाकल्प कैसे हुआ? तेजी से विद्यालय का इंफ्रास्ट्रक्चर बदला। रंग रोगन बदला। नए आने वाले शिक्षकों ने जी जान लगा पेड़ पौधे लगाए। दो तीन एन जीओ आगे आए.. अब स्कूल स्कूल जैसा लगने लगा था।फिर 2018में सक्षम अभियान आया……. 20 दिसंबर 2018में लिखे एक लेख के अंश…
विद्यालय में जाना मेरे लिए किसी उत्सव से कम नहीं है। छोटे- छोटे बच्चे और उनका पंछियों जैसा कलरव मन को सुकून से भर देता है। परंतु पिछले एक लम्बे अर्से से हमारा यह सुकून जाने कहां खो गया। शिक्षा के क्षेत्र में रोज नए प्रयोग होते रहते हैं परंतु शिक्षा का स्तर नहीं सुधरता, यह सचमुच चिंता का विषय है। एक शिक्षक क्या चाहता है?
एक कर्तव्य निष्ठ शिक्षक अपना सर्वस्व अपने विद्यार्थियों को देना चाहता है। आजकल एक नया प्रयोग जारी है वह है सक्षम हरियाणा…. सुनने में यह जितना सहज और सरल लगता है ज़मीन पर उतर कर देखें तो इतना सीधा है नहीं। पहले पहल जब सक्षम की लहर आई तब लगा बाकी योजनाओं की तरह यह भी जल्द चलता होगा परंतु अब लग रहा है अच्छा ढोल गले पड़ा है। जुलाई में जब सक्षम की लहर सरकारी विद्यालयों में आई थी तभी चिंता के अनजाने बादल घिर आये थे। कक्षा तीसरी में सक्षम का प्रयोग अनुचित लगा।
सरकारी विद्यालयों में अधिकांश बच्चे पिछड़े तबके से आते हैं इन्हें स्कूल तक लाना किसी महाभारत से कम नहीं….. खासकर उस क्षेत्र में जहां मैं काम करती हूं। वह एक पिछड़ा और मुस्लिम बहुल इलाका है। यहां हर घर में आठ से दस बच्चे मिल जाएंगे! इनके लिए विद्यालय और शिक्षा प्राथमिक नहीं द्वितीयक कार्य है। मुंह अंधेरे यह बच्चे उठकर मस्जिद को चले जाते हैं वहां से सीधा विद्यालय आते हैं और विद्यालय से फिर उसी मस्जिद को जाते हैं। इनके लिए दीनी शिक्षा का महत्व विद्यालय से कहीं ज्यादा है। विद्यालय में इन बच्चों की उपस्थिति को बनाए रखना हम लोगों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं।
सच तो यह है कि इनके विद्यालय आने का कारण मुफ़्त स्कूली शिक्षा और वर्दी व भोजन आदि है। अधिकांश माता पिता अशिक्षित हैं। उन्हें शिक्षा के विषय में समझाना मोदी जी के नाम पर वोट मांगने जैसा है। आधी कक्षा लम्बी अनुपस्थिति की शिकार है… कारण घरेलू कार्य.. यथा माँ की बीमारी, छोटे भाई – बहन संभालना, लकड़ी लाना, खेत पर रोटी देने जाना। माता-पिता के आगे बच्चे खेलते रहते हैं उन्हें स्कूल याद नहीं आता। शिक्षक के फोन से भी उनकी नींद नहीं टूटती। वे जानते हैं सप्ताह भर न जाने पर ही नाम कटेगा।
ऐसे में सक्षम…?आज पहली दफा मैंने उन नन्हीं हथेलियों पर अपनी अक्षमता को बरसाया… क्या ये चुनौती हम जीत पायेंगे…?
इस सक्षम अभियान के तहत तीसरी, पाँचवीं व सातवीं के अस्सी प्रतिशत बच्चों को अस्सी प्रतिशत तक पहुंचाना था।सौ प्रतिशत उपस्थिति जरूरी थी। इस सक्षम योजना को शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए बनाया गया। परियोजना के निदेशक डॉ. राकेश गुप्ता थे । शिक्षा के बिना कोई भी देश, प्रदेश और समाज तरक्की नहीं कर सकता। इसी के दृष्टिगत प्रदेश सरकार ने उन दिनों प्रदेश में सक्षम योजना लागू की थी। सक्षम एक राज्यव्यापी शिक्षा परिवर्तन कार्यक्रम था जो मुख्यमंत्री कार्यालय और स्कूल शिक्षा विभाग के संयुक्त तत्वावधान में प्रदेश भर में चलाया गया। ताकि लर्निंग एंहासमेंट प्रोग्राम के माध्यम से उपचारात्मक शिक्षा को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके। जिससे मूल्यांकन सुधार समीक्षा और निगरानी तंत्र को और अधिक मजबूत बनाया जा सके। पहली बार ऐसा लगा हथेली पर सरसों जमाई जा सकती थी। क्या जोश और जुनून था। डॉक्टर दिनेश शास्त्री जैसे जिला शिक्षा अधिकारी पूरे मेवात में घूम घूम कर अध्यापक वर्ग को जगा रहे थे। मेवात में शिक्षकों की किल्लत शुरु से रही है। इसे मिनी पाकिस्तान समझ यहाँ कोई नहीं आना चाहता। बहुतेरे तो सिंगल टीचर स्कूल हैं। लेकिन एक लंबी जद्दोजहद के बाद कक्षाओं में शत प्रतिशत हाजिरी लाने में सभी शिक्षक साथी कामयाब हुए । नूँह और तावड़ू खंड अपने मजबूत इरादों के चलते अपने अभियान में सक्षम भी रहे। वो मेवात के शिक्षा के इतिहास में सुनहरी पन्ना था।
कोरोना की लहर के बाद एक नया अध्याय जुड़ा यहाँ की सरजमीं पर! लोगों के पास कुछ करने को न था तो वो अपने धर्म से जुड़ गए। बच्चे मस्जिदों में भेजे जाने लगे। सुबह, दोपहर, शाम। जमाते चलीं। वो मेवात जहाँ की महिलाएँ कभी सलवार कुर्ते में दुपट्टा सिर पर पीठ पीछे लहराती और घास- ज्वार के गट्ठर बांध आती – जाती दिखाई देती थीं आज वो बहुत कम दिखाई देती हैं। कोरोना मानों हमारी वर्षों की मेहनत पर सुनामी था। बच्चों में अब अराजकता आ गई । अनियमितता आ गई। कोरोना के समय में मस्जिद और मौलवी साथ थे। मेवात वो इलाक़ा था जहाँ उन्होंने कभी माना ही नहीं कोरोना आया भी था! वहाँ जो भी मौतें हुईं उन्हें आम बीमारी समझा गया।
भुखमरी ज्यों ज्यों बढ़ीं
मौलवी बढ़ते गए
मजे की बात तो ये कि आठ सौ परिवार वाले छोटे से गाँव में पाँच मस्जिद! हर मस्जिद में एसी! पानी की सुविधा। विद्यालय क्योंकि सरकारी है तो वहाँ पंखे तक न चलें इसके लिए पूरी कोशिश। हर महीने कई दफा तार चुरा लिए जाते हैं। पानी की टूंटिया तोड़ दी जाती हैं ताकि विद्यालय में पानी न रहे। टॉयलेट तक पानी न पहुंचे। बच्चे परेशान रहें और विद्यालय से बाहर रहें। सभी शिक्षक दूर से आने वाले हैं अतः कोई अपनी प्रतिक्रिया नहीं देता। बस बार बार जेब से तार और टूटिंया बनवाते हैं।
प्रार्थना के समय फिर से वही बीस प्रतिशत बच्चे मौजूद रहते हैं। नौ दस बजे तक तीस चालीस प्रतिशत और आ जाते हैं। शिक्षक कक्षा में हाजिरी लगाते हुए रोज़ एक बड़ी जद्दोजहद से गुजरते हैं। क्योंकि बच्चों ने आने का एक पैटर्न बना रखा है.. एक दिन आना फिर दो दिन गायब.. कभी कभी तो सप्ताह भर तक नदारद रहते हैं। रोज शुरुआत में समय पर आओ.. स्वच्छ रहो.. अनुपस्थित बच्चों को बुलाकर लाओ.. जैसी कहानी चलती है। लेकिन चिकने घड़ों पर कब पानी ठहरा है भला? आप कहेंगे माता – पिता से बात क्यों नहीं करते? तो जनाब पिता तो अधिकांश ड्राइवर हैं जो घर से बाहर रहते हैं। माँ घर और छोटी मोटी खेती को संभालने में ऐसी व्यस्त कि कुछ न सूझे। हर घर में सात आठ बच्चे तो मिल ही जाएंगे.. हैरानी होती है ये देख कर कि छः साल के बच्चे अपने एक दो साल के भाई बहनों को गोदी में उठाए घूमते हैं! जो समय बच्चों की बुनियादी शिक्षा का होता है वह अपने भाई बहनों को पालने और उनके रखरखाव में बीत जाता है। माता-पिता क्योंकि अधिकतर अनपढ़ है अतः वह शिक्षा के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं उन्हें लगता है कि बच्चों के लिए केवल दीनी शिक्षा यानी इस्लामिक शिक्षा ही काफी है। वह अपने बच्चों को खासतौर से बालिकाओं को टीवी मोबाइल फोन आदि से दूर रखते हैं इन्हें लगता है कि यह चीजें बच्चे को बिगाड़ देंगीं। कभी यह नहीं देखते कि 10 बाई 14 के कमरे में आठ-दस बच्चे कैसे रहते हैं? क्या सीखते हैं। दिन रात गलियों और सड़कों पर कौन सी शिक्षा लेते हैं?
सरकारी विद्यालय में नाम लिखवाना इनके लिए अति आवश्यक है। ऐसा इन्हें लगता है क्योंकि जब भी किसी सरकारी दस्तावेज की जरूरत होती है तो वहाँ स्कूल से मिला सर्टिफिकेट ही काम आता है। दूसरा सरकार से मिलने वाली योजनाओं का लाभ मिलता है। मिड डे मील पर यहाँ अक्सर लड़ाई देखी जा सकती है।
गाँव में आए दिन लड़ाई होती रहती है। और हथियार होते हैं पत्थर। जिन्हें यहाँ की भाषा में ‘गिड़’ कहते हैं। इस अनोखी लड़ाई में घर की छतों से एक दूसरे पर पत्थर बरसाए जाते हैं। जिनसे बचने के लिए ये ढाल की तरह चारपाई का प्रयोग करते हैं। जब लड़ाई चरम पर पहुंच जाती है तो किसी पक्ष द्वारा पुलिस को बुलाया जाता है और पुलिस भी इनकी पत्थरबाजी की चपेट में आए बिना नहीं रहती। कभी कभार दो दो गुटों के टकराव के बाद फौजी कंपनी भी बुलाई जाती है! किसी हिंदू बहुल गांव में जा कर देखिए गांव में पुलिस का पहुंचना बहुत बड़ी शर्म की बात मानते हैं। पुलिस के आने का मतलब है नाक नीची होना। किसी भी सभ्य समाज में जब पुलिस पहुंचती है तो इसे हिकारत भरी नज़र से देखा जाता है। किंतु क्या करें? एक गलत फैसला आपके लिए जीवन भर की त्रासदी बन जाता है। क्या मेवात में शिक्षा यहाँ के बच्चों को नया सवेरा देगी? या इन्हें साईबर क्राईम की ओर लेकर जाएगी?
उम्र भर जिनको तराशा
इंसान बनाकर रात दिन
देखते ही देखते वो
…. क्रमशः