उजड़े हुए दरीचे उनींदे से दयार
पूछ रहे हैं -क्या खोजते हो
यहाँ आकर बार बार
करतें हैं कनबतियां
आपस में फुसफुसाकर…
बाज़ार सारे ढह गए
ढह गई बसापत
किले में ऐसा क्या था
जो आई न मलामत ?
बस्तियों के नसीब में
क्या सचमुच नहीं थी छत ?
क्या वजह रही जो
सोमेश्वर हैं सलामत!
बरगद जो उस किले में
अब भी तना खड़ा था
सदियों से आंधियों में
अब तक जमा पड़ा था
दाढ़ी को लहराकर
उसने बज़ा फरमाया
राज भानगढ़ का कुछ यूँ बताया…
फूंस के मकान
और हड्डियों की ठठरी
जमाना हो चाहे कोई
हर युग में उड़ा करते हैं
इंसान खंडहरों में
प्रेत ढूंढा करते हैं
इंसान जहाँ नहीं है
न बस्ती न गृहस्थी
न है कोई राजा न कोई समस्ती
मेरी तेरी क्या है औकात उसके आगे
जिसने जहाँ बनाया जो हर घड़ी है जागे
देख जरा जाकर तलैया है उसकी गदली
सदियों से इसमें न उतरी कोई पगली
सोमेश्वर के सर पर न तुलसी का ताज है
पूरे भानगढ़ में चमगादड़ों का राज है
…… प्रीति राघव चौहान