अरण्य-रोदन
भाग – 1
कठौती
रोज की भांति सड़क आज भी सीधी सपाट थी। कुछ भी ऐसा देखने लायक नहीं था जो किसी राहगीर का मन मोहे। विकास के नाम पर सड़क के किनारे की सभी वृक्ष जाने किन ट्रकों में लदकर दूर जा चुके थे। इसी तीव्र विकास के चलते वृंदा अपने पैतृक गांव की सूरत देखने के लिए लालायित हो रही थी। सड़क से गुजरते हुए जितनी दफा जाने कितनी बार उसने सोचा एक बार अपने पैतृक घर को जी भर देखे परंतु वक्त की कमी के चलते ऐसा संभव न हो सका। आज अचानक उसे खयाल आया कि कहीं ऐसा ना हो उसके पिता की हवेली कहीं विकास की भेंट ना चढ़ जाए। यही सोच उसने गाड़ी अपने बाबा के घर की तरफ मोड़ दी। पुरानी हवेली.. किसी जमाने में उस हवेली में बारह कमरे छः रसोईघर और चार चौबारे हुआ करते थे। एक बड़ा दलान जिसके बीचोंबीच एक बड़ा नीम का पेड़ भी था। हवेली का आधा हिस्सा उसके बाबा रोशन सिंह और आधा उम्मेद सिंह के नाम था। दोनों भाइयों के तीन तीन बेटे थे। विकास की आंधी ने सभी को उड़ा कर महानगर पहुंचा दिया था। केवल उम्मेद सिंह का एक बेटे सुमेर सिंह जो विकास की आंधी में कहीं पीछे छूट गये थे उस पुश्तैनी हवेली में पैर फैलाए पड़े था। कहने को तो उनके हिस्से में केवल दो कमरे आते थे परंतु सभी भाइयों के बाहर चले जाने के बाद उन्होंने हर कमरे मैं अपने पैर पसार लिए। परंतु हवेली की मरम्मत के लिए जेब में आना ना था। आजादी से पहले बनी वह हवेली आज भी जस की तस थी हां इतना जरूर हुआ था कि रोशन सिंह के चौबारे पर रखी ईंटों की दीवारें उठ कर उम्मेद सिंह के चौबारे पर ज पहुंची थीं।
उस हवेली में वृंदा का यूं तो कोई अनमोल खजाना ना था हाँ एक कठौती और एक कठउआ था। जिसे वह गाहे-बगाहे अपनी बीबी (दादी) से मांगा करती थी। लकड़ी की वह कठौती और कठउआ आज के जमाने में हालांकि अप्रासंगिक है फिर भी वह हमेशा
